________________
हो और इस तरह पर यह प्रन्य मी एक बाली अन्य बना हो। परन्तु कुछ भी छ, इसमें संदेह नहीं कि, यह अन्य कोई महत्वका प्रन्थ नहीं है। इसमें बहुतसे करन ऐसे भी पाए जाते हैं जो जैनधर्मके विरुद्ध है, अथवा जैमसिद्धान्तोसे जिनका कोई मेल नहीं है। चूंकि यह लेख सिर्फ प्रन्यकी ऐतिहासिकता-अन्यकर्ता और प्रत्यके बननेका समयनिर्णय करनेके लिए ही लिखा गया है इस लिए यहाँ पर विरुण कथनोंक कोखको छोडा भाता है। इस प्रकार के विरुद्ध कथन और मी प्रतिष्ठापाठोंमें पाए जाते हैं। जिन सबकी विस्तृत मागेचना होने की ज़रूरत है। अवसर मिलने पर प्रतिछपाने के विषय पर एक स्वतंत्र लेख लिखा पायगा और उसमें यह मी दिखलाया जायगा कि उनका यह कपन कहाँ तक बेवधर्मके बनुकुल या प्रतिकूल है।
देषवन्द । सा. २६ मार्च, सन् १९१७
पूज्यपाद-उपासकाचारकी जाँच।
सन् १९०४ में, 'पूज्यपाद' पाचार्यका बनाया हुमा 'उपासकाचार' नामका एक संस्कृत अन्य प्रकाशित हुला था। उसे कोल्हापुरके पंडित श्रीयुत कालापा भरमापानी निठवेने, मराठी पयानुषाद और मराठी अर्थसहित, अपने 'जैनेंद्र' अपाखानेमें आपकर प्रकाशित किया था। जिस समय प्रन्यकी यह छपी हुई प्रति मेरे देखने आई वो मुझे इसके किसनेही पयापर संदेह हुआ और यह इच्छा पैदा हुई कि इसके पयोंकी पाँच की भाब, और बह'मालम किया जाय कि यह मन्प कौनसे पूज्यपाद भाचार्यका पनामा हुला है। मीसे मेरी इस विषयकी खोज जारी है। और उस खोबसे अबतक वो कुछ नतीजा निकला है उसे प्रकट करने के लिये ही यह लेख लिखा जाता है।
सबसे पहले मुझे देहलीके, 'क्या मंदिर के शास-भडारमें इस प्रन्यकी हस्तलिखित प्रविका पता चला। इस प्रतिके साथ छपी हुई प्रतिका को निकाल किया गया वो उससे, मालम हुआ कि उसमें छपी हुई प्रतिके निम्नलिखित छह लोक नहीं है
पूर्वापरविरोधादिपुर हिंसावपासनम् । प्रमाणस्यसंपादि शास्त्र पर्षबभाषितम् ॥ ७॥ गोपुच्छिकश्वेतवाला द्राविडो, यापनीयकः । निपिच्छति पंचते जैनामास प्रकीर्तिताः ॥१०॥ मास्यईता पये देवो धर्मो नास्ति इयां विना । सप परख नैन्थ्यमेतत्सम्यक्त्वलक्षणं n.