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उस नहीं मिलता। प्रत्युत, अकलंक-प्रतिष्ठापाठके बहुतसे यों और कथनका समावेश उसमें ककर पाया जाता है। ऐसी हस्तमें, सोमसेन त्रिवर्गाचार में 'अकलंक-प्रविष्ठापाठ' काउलेख किया गया है, यह कहना समुचित प्रतीत होता है। सोमसेनमियर्माचार वि सं० १६६५ में बनकर सम्प्रप्त हुआ है और कमतिपाठका उसमें खोया है। इस लिए कलंक प्रतिष्ठापाठ वि० सं० १६६५ से पहले चुका था, इस पहने में भी कोई संकोच नहीं होता ।
नतीना इस संपूर्ण कथनका यह है कि विधावस्थ प्रतिछापाठ राजवार्तिकके क भट्टाकलंकदेवका बनाया हुआ नहीं है और म विक्रमकी १६ वीं शताब्दी से पहलेका ही बना हुआ है। बल्कि उसकी रचना विक्रमकी १६ व शताब्दी या १७ वीं शताब्दी के प्रायः पूर्वार्धमें हुई है। अथवा यो कहिए कि यह वि० सं० १५०१ और १९६५ के मध्यवर्ती किसी धमयका बना हुआ है।
अब रही यह बात कि, अब यह प्रन्य राजवार्तिकके कर्ता भट्टाकर्तकदेनका मनाया हुआ नहीं है और न 'मलाकसंकदेव' नामका कोई दूसरा विद्वान् चैनसमाचने प्रसिद्ध है, तब इसे किसने बनाया है? इसका उत्तर इस समय सिर्फ इतना ही हो सकता है कि या तो नह प्रन्य 'अकलंक' या 'अकलंमदेव' नामके किसी ऐसे अप्रसिद्ध महारक या दूसरे विद्वान महाधनका बनाया हुआ है जो उपर्युक्त समयके भीतर हुए हैं और बिन्होंने अपने नामके साथ स्वयं ही 'मह' की महत्वसूचक उपाधिको ध्याना पसंद किया है । अमवा इसका निर्माण किसी ऐसे व्यकिने किया है ओ इस ग्रन्यके द्वारा अपने किसी किनाकांड या संतव्य के समर्थनाविरूम कोई एक प्रयोजन सिद्ध करना चाहता हो और एस लिए उसने स्वये ही इस अन्यको बनाकर उसे भधाकलंकदेवके बालसे प्रसिद्ध किया
*बादको 'हिस्ट्री ऑफ कनडी लिटरेचर' (कवडी साहित्यका इतिहास) से माम हुआ कि इस धमनके भीतर 'मतफलंकमेव ' नामके एक सारे विद्वान हुए हैं • धोके अधिपति महारकके शिष्य थे और जिन्होंने क
१७०० १६०५ ) फनडीसोपाका एक बडा व्याक
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लिखा है, जिसका नाम है 'मानस' और जिसपर संस्कृतकी ए विस्तृत डीकामी आपकी ही लिखी हुई है। हो सकता है कि यह प्रविष्ठापाठ आपकी ही रचना हो । परंतु फिर भी इसमें मनहागरचका दूसरे मन्यसे कर रक्खा जाना खटकता जरूर है क्योंकि पाप संत वच्छे विद्वान कहे जाते है। यदि आपका तक शब्दानुशासन मुझे देखनेके लिये मिल सकता तो इस विनयका कितना ही संदेह यह हो सकता था।.....
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हलक |