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[२४४] पर द्रौपदी के पंचपति होने का निषेध किया है। दोनों पब इस प्रकार :
सम्बंधा भुवि विद्यन्ने सर्वे सर्वस्य भूरिशः। भर्तयां शापि पंचानां नैकया भार्यया पुनः || सर्व सपुर्वन्ति संविभाग महाधियः । महिलासविमागस्तु निन्यानामपि निन्दितः HER
पपसागरनीने यद्यपि इन पोंसे पहले और पीछे के बहुत से पोंकी एकदम ज्योंकी त्यों नकल कर डाली है, तो भी आपने इन दोनों पोंको अपनी धर्मपरीक्षामें स्थान नहीं दिया । क्योंकि अताम्बर सम्प्रदायों, हिन्दुओं की तरह, द्रौपदी के पंचमार ही माने जाते हैं । पाँचों पांडवोंके । गले में दोपदीने वरमाला डाली थी और उन्हें अपना पति बनाया था, ऐसा करन खेताम्बरीके 'त्रिशष्ठिशनाकापुरुषचरित' आदि अनेक ग्रंथोम पाया जाता है। उक्त दोनों पोंको स्थान देनेसे यह ग्रंथ कहीं श्वेताम्बरधर्मके महावेसे बाहर न निकल जाय, इसी मयसे शायद गणीनी महाराजने उन्हें स्थान देनेका साहस नहीं किया । परन्तु पाठकोंको यह मानकर भाषर्य होगा कि गणीनीने अपने प्रथमें उस श्लोकको ज्योका ला रहने । दिया है जो भाषेपके रूपमें ब्राह्मणों के सम्मुख उपस्थित किया गया था मौर जिसका प्रविषाद करने के लिए ही अमितगति प्राचार्यको उक्त दोनों पोंके बिखनेको नहरत पड़ी थी। वह लोक यह है:
द्रौपचा: पंच मार: कध्यन्ते पत्र पाएदशा।
जनन्यालय को दोषस्तत्र मर्दद्वये सति IEE | - इसकोको द्रौपदीके पंचगार होने की बात कटाक्ष रूपसे कही गई है। जिसका माग प्रतिवाद होनेकी मरत थी और जिसे गणीनीने नहीं किया 1 यदि गणीनीको एक खाके अनेक पति होना अनिष्ट न पा तब मापको अपने प्रथमें यह लोक भी रखना उचित न था और न इस विषयको कोई चर्चा हो पाने की जरूरत थी। परन्तु आपने ऐसा न करके अपनी