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[२४३] .. वृक्षतणान्तरितो मम तीरे विष्ठ निरीक्षितुमागतिमस्य।
कोपपरेण कृते मम बाते पूकुरु सर्वजनश्रवणाय ॥ १० ॥
इन तीनों पोंके स्थान में पनागर गणीने अपनी धर्मपरीक्षामें निमाविखित दो पच मनुष्टुप् छन्दमें दिये हैं:
समूलं क्षयमेत्येष यथा कर्म तथा कुरु । वसामि यत्स्फुरहेहः स्वर्ग हुएमनाः सुभम् ॥ २३ ॥ वृक्षाद्यन्तरितस्तिष्ठ त्वमस्यागतिमीक्षितुम् । मायावेऽस्मिन्मृत हत्वा मां पूत्कुष जनश्रुनेः ॥ २४ ॥
इन पोंका भमितगतिक पर्कक साथ मिलान करनेपर पाठकोंको सहजमें है। यह मालूम हो जायगा कि दोनों पब ऋगशः अमितगतिके पथ नं. ८८ और १० परसे कुछ छीन शासकर बनाये गये हैं और इनमें अमितगतिके शब्दोंकी प्रायः नकल पाई जाती है । परन्तु सायही उन्हें यह जाननमें भी विचम्म न होगा कि अमितगतिके पच नं०८६ को पनसागरनीने बिलकुल ही छोड़ दिया है उसके स्थानमें कोई दूसरा पद्य मी बनाकर नहीं रक्खा । इसलिए उनका पच नं० २८४ बड़ा ही विचित्र मालूम होता है। उसमें उस उपायके सिर्फ उत्तरार्धका कथन है, जोवाने मरने समय अपने पुत्रको प्रतक्षाया था। उपायका पूर्वार्ष न होनेसे यह पथ इतना असम्बद्ध और बेढंगा होगया है कि प्रकृत कयनसे उसकी कुछ भी संगति नहीं बैठती । इसी प्रकारके पथ और भी अनेक स्थानोंपर पाये जाते हैं, जिनके पहले के कुछ पब छोड़ दिये गये हैं और इसलिये थे परफटे हुए कबूतरकी समान लबूरे मालूम होते हैं।
(२) अमितगतिने अपनी धर्मपरीक्षाके १५ वे परिछदमें, 'युक्तितो घटते यन्न इत्यादि पधनं० ४७ के बाद, जिसे पनसागरनीने भी अपने प्रथमें नं० १०८९ परज्योंका यों उद्धृत किया है, नीचे लिखे दो पदों. द्वारा एक बीके पंच मार होनेको प्रति निंध कर्म ठहराया है और इस तरह