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(४)अमितपति-धर्मपरीक्षा के छठे परिच्छेदमें, 'या' प्राम्हणी और उसके बारपति 'पटुक' का उल्लेख करते हुए, एक पब इस प्रकारसे दिया है
प्रपेदे स पचस्तस्या निम्शेष एमानसा।
जायन्ते नेहशे कार्य दुष्प्रबोधा हि कामिनः॥४॥ इस पछमें लिखा है कि 'उस कामी बटुकने बाकी मायाको (जो अपने निकल भागनेका उपाय करने के लिए दो मुर्दे छानेके विषयमें बी) बड़ी प्रसनताके साथ पालन किया, सच है कामी पुरुष ऐसे कामोंमें दुबोध नही शेते। अर्थाद, वे अपने कामको पातको कठिनतासे समझनेपाछे न होकर शीघ्र समझ लेते हैं। परसागरजीने वही पर अपनी धर्मपरीक्षामें न० ३१५ पर दिया है परन्तु साथ ही इसके उत्तरार्षको निम्न प्रकारसे बदलकर रखा है
“न जाता तस्य शंकापि दुष्प्रबोधा हि कामिनः ॥" इस परिवर्तनके द्वारा यह सूचित किया गया है कि उस बटुकको उक आलाके पाठनमें शंका मी नहीं हुई, सब है कामी गेग कठिनता से समझानेवाळे होते हैं परन्तु बद्धक्ने तो यहाकी आमाको पूरी तौरसे समझकर उसे बिना किसी काके प्रसनताके साथ श्रीध पालन किया है तब वह कठिनतासे समझनेवाला दुपयोध' क्यों ! यह बात बहुत ही खटकनेपाली है और इस लिए ऊपरका परिवर्तन पका ही वेढंगा मालम होता है। वहीं माम प्रयकर्ताने इस परिवर्तनको करके पथमें कौनसी खूबी पैदा की और क्या गम उठाया । इस प्रकार के व्यय परिवर्तन और मी अनेक स्थानॉपर पाए माते हैं जिनसे अंषकांकी योग्यता और व्यांचरणका बच्चा परिचय मिलता है।
. श्वेताम्बरशाख-विरुद्ध कथन।। (५) पद्मसागर गणीने, अमितगतिके पोंकी ज्योंकी त्यों नकल करते हुए, एक स्थान पर ये दो पद्य दिये -
।। क्षुधा दण्णा भयोषी रागो मोहो मदोगदा।। चिन्ता जन्म जप सूयुर्विषादो विस्मयो रतिः ।
खेदा स्वेदस्तथा निदा दोषाः साधारणा इमे ।
मधदशापि विचन्ते सर्वेषां दुःखहेतवः ॥ १३ ॥ इन पोम उन १८ दोषोंका नामोल्लेख है, जिनसे दिगम्बर लीम महन्तदेवीको रहित मानते हैं । उक दोषोंका, २१ पर्यो छ विवरण देकर फिर ये हो पथ और दिये है -
एतैयै पीडिता दोषस्तैर्मुच्यन्ते कयं परे। .. सिंहानां इतनागानां न खेदोस्ति मृगक्षये ॥ ९१५॥ सर्वेरामिण विद्यन्ते दोषानानास्ति संशयः। रुपिणीव सदा द्रव्ये गन्धस्पर्शरसादयः॥ १६ ॥