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'स्मृतिरनाक' ' में यह ब्रैकटों में दिये हुए साधारण पाठभेद के साथ पाया जाता है और इसे 'अत्रि ऋषि का वाक्य लिखा है। हिंदुओं
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भट्टारकजी ने ईस अघमर्षण को स्थान को अय बनेलाकर हिन्दुओं के एक ऐसे सिद्धान्त को अपनाया है जिसका जनसिद्धातों के साथ कोई मेल नहीं । जैन सिद्धान्तों की दृष्टि से पापों को इस तरह पर स्नान के द्वारा नहीं धोया जा सकता। स्नान से शरीर का सिर्फ बाह्यमन दूर होता है, शरीर तक की शुद्धि नहीं हो सकती, फिर पापों का दूर होना तो बहुत ही दूर की बात है वह कोई खेल नहीं है । पाप जिने मिध्यात्व असंयमादि कारणों से उत्पन्न होते हैं उनके विपरीत कारणों को मिलाने से ही दूर किये जा सकते हैं-अज्ञादिक से नहीं। जैसाकि श्री अमितगति आचार्य के निम्नवाक्यों से भी प्रकट है
मनो विशोष्पते बाह्य असेनेति निगद्यताम् । पापं निहन्यते तेन कस्येदं हृदि वर्तते ||२६|| मिथ्यात्वा संयमाऽज्ञाने. कल्मषं प्राणिनार्जितम् । सम्यक्त्व संयमज्ञानर्हन्यये नान्यथा स्फुटम् ||३७|| कपाथैरजितं पापं सलिलेन निवार्यते । एतज्जवात्मनो ब्रूते नान्पे मीमांसका एवम् ॥३५॥ यदि शोधयितुं शक्रं शरीरमपि जो जलम् ।
अन्तः स्थितं ममो दुष्टं कथं तेन विंशोध्यते ॥ २६ -- धर्मपरीक्षा, १७ वाँ परिच्छेद । महारकजी के इस विधान से यह मालूम होता है कि वे जानसे पापों का घुलना मानते थे । और शायद यही वजह हो जो उन्होंन प्रन्ध में स्नान की इतनी अरमार की है कि उससे एक अच्छे मंत्रे आदमी का नाक में दम भा सकता है और वह उसीमें उसका रहकर अपने जीवन के समुचित ध्येय से वंचित रह सकता है और छीपना कुछ भी उत्कर्ष साधन नहीं कर सकती। मेरी इच्छा थी कि मैं स्नान की उस भरमार का और उसकी निःसारता तथा जैन सिद्धान्तों के साथ उसके विरोध का एक स्वतन्त्र शीर्षक के नीचे
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पाठकों को दिग्दर्शन कराऊँ परन्तु बैंक बहुत बढ़ गया है इसखिय मजबूरन अपनी उस इच्छा को दमाना ही पड़ा ।
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