Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 235
________________ [२२२] बिल गये हैं जिनसे आपकी श्रद्धा, योग्यता और गुणज्ञता का खासा दृश्य सामने उपस्थित हो जाता है और उसे देखकर भापकी हालत पर बड़ा ही तसे आता है | भाप लिखते हैं-"यन्तरों का अनेक प्रकार का खमात्र होता है। अतः किसी किसी का खभाव जलप्रहण करने का है। किसी किसी का वन निचोदा हुमा जन लेने का है। ये सब उनकी स्वभाविकी क्रियायें हैं।" परन्तु कौन से नशाखों में व्यन्तरों के इस स्वभावविशेष का उल्लेख है या इन क्रियाओं को उनकी स्वभाविकी क्रियाएँ लिखा है, इसे पाप बतबा महीं सके माप यहाँ तक तो निखगये कि " जैनशाखों में साफ लिखा है कि व्यन्तरों का ऐसा स्वभाव है और ये क्रीडानिमित्त ऐसा करते हैं-ऐसी क्रियायें करा कर वे शान्त होते हैं। परन्तु फिर भी किसी माननीय मशाख का एक भी वाक्य प्रमाण में अद्भुत करते हुए भाप से बन नहीं पदा तब आपका यह सब कपन थोथावारजाल ही रह जाता है। मालूम होता है अनेक प्रकार के स्वभाव पर से पाप सब प्रकार के स्वभाष का नतीजा निकायते हैं, और यह आपका विनक्षण तर्क है || ध्यन्तरों का सब प्रकार का स्वभाव मानकर और उनकी सब कामों को पूरा करना अपना कर्तव्य समझ कर तो सोनीनी बहुत ही प्रापचि में पर बायेंगे और उन्हें व्यन्तरों के पीछे नाचते नाचते दम लेने की मी फुर्सत नहीं मिलेगी । खेद है सोनीबीने यह नहीं सोचा कि अपम तो व्यन्सर देव क्रीडा के निमित बिन बिन चीजों की इच्छाएं में उनको पूरा करना प्रावकों का कोई कर्तव्य नहीं है-श्रावकाचार में ऐसी कोई विधि नहीं है. व्यन्तरदेव यदि मांसभक्षण की कौड़ा करने सगे तो कोई भी श्रावक पशुओं को मारकर उन्हें पति नहीं चढ़ाएगा, मोरम श्रीसेवन को काला करने पर अपनी बी या पुत्री पद संभोग के 'चिये देगा । दूसरे, यदि किसी तरह पर उनकी कला को पूरा भी किया

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