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देशक, सर्व के हितकारी भोर कुमार्ग का मथन करने वासे होते हैं ऐसे शास्त्रों के विषय में उक्त प्रकार की चिंता करने के लिये कोई स्थान ही नहीं होता तो खुलेमैदान परीक्षा के लिये छोड़ दिये जाते हैंउनके विषय में भी उक्त प्रकार की चिन्ता व्यक्त करना अपनी श्रद्धा की कचाई और मानसिक दुर्पलता को प्रकट करना है। इसके सिवाय, सोनीनी को शायद यह भी मालूम नहीं कि 'कितने हो म्रष्टचारित्र पंडितों और वरसाबुओं (मूर्ख तथा धूर्त सुनियों) ने निनेन्द्रदेव के निर्मल शासन को मक्षिन कर दिया है कितनी ही स बातों को, इधर उधर से अपनी रचनादिकों के द्वारा, शासन में शामिल करके उसके स्वरूप को विकृत कर दिया है' (इससे परीक्षा की भोर भी खास अरूरत खड़ी हो गई है 1); जैसा कि अनगारधर्मामृत की टीका में पं०आशा धरणी के द्वारा उद्घृत किसी विद्वान् के निम्न वाक्य से प्रकट है:---- पण्डिते प्रचारिचैर्वठा तपोधनैः ।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मत मलिनीकृतम् ॥
सोमसेन भी तुम्ही बटर अथवा धूर्त सांघुष्यों में से एक थे, धौर यह बात ऊपरकी भाछोचना परसे बहुत कुछ स्पष्ट है। उनकी इस महा आपत्तिजनक रचना (त्रिपर्णाचार) को सत्यशांख का नाम देना वास्तव में सत्य शाखों का अपमान करना है | अतः सोनीबी की चिन्ता, इस विषय में,
जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के मिस्र वाक्य से प्रकट है.--. सोपमनुष्यमाविशेधकम् ।
तत्वोपदेशकृत्सा शाखं कापयधनम् । (रत्नकरण्ड आ०)
+ इसी बानको लक्ष्य करके किसी कवि में यह वाक्य कहा हैजिनमद महल मनोश अति प्रतियुग छादित पंथ । समस के परक्षियो चर्चा निर्णय प्रेथ ॥
और बड़े बड़े आचार्यों ने तो पहले से ही परीक्षामधानी
होने का उपदेश दिया है- अन्यथा पाने का नहीं।