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दिया जाता है उसका नाम श्राद्ध है। हिंदुओं के यहाँ सर्पण और श्राद्ध ये दोनों विषय करीब करीब एक ही सिद्धांत पर अवस्थित है । दोनों को 'पितृयज्ञ' कहते हैं। मेद सिर्फ इतना है कि तर्पण में प्रि से जल छोड़ा जाता है, किसी ब्राह्मणादिक को पिलाया नहीं जाता । देव पितरगया उसे सीधा प्रहण करनेते हैं और तृप्त हो बाते हैं। परंतु श्राद्ध में प्रायः ब्राह्मणों को भोजन खिलाया जाता है अथवा सूखा नादिक दिया जाता है। और जिस प्रकार लेटरबॉक्स में डाली हुई चिट्टी दूर देशांतरों में पहुँच जाती है उसी प्रकार मानो ब्राह्मणों के पेट में से वह भोजन देव पितरों के पास पहुँच कर उनकी तृप्ति कर देता है । इसके सिवाय कुछ क्रियाकांड का भी भेद है। पिण्डदान भी श्राद्ध का ही एक रूपविशेष है, उसका भी उद्देश्य पितरों को तृप्त करना है और वह भी 'पितृयज्ञ' कहलाता है। इसमें पियब को पृथ्वी आादिक पर डाला जाता है --- किसी ब्राह्मणादिक के पेट में नहीं और उसे प्रकट रूप में कौए भादिक खानाते हैं। इस तरह पर श्राद्ध और पिण्डदान ये दोनों कर्म प्रक्रियादि के भेद से, पितृतर्पण के ही भेदविशेष हैं इन्हें प्रकारांतर से 'पितृतर्पण' कहा भी जाता है और इसलिये इनके विषय में मुझे अधिक कुछ भी लिखने की बरूरत नहीं है। सिर्फ इतना मौर बसला देना चाहता हूँ कि हिंदू ग्रंथों में 'श्राद्ध' नाम से भी इस विषयका स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि वह जैनधर्मसम्मत नहीं है, जैसाकि उनके पद्मपुराण' के नि वाक्यों से प्रकट है, जो कि ३६वें अध्याय में उसी दिगम्बरसाबु द्वारा श्राद्ध के निषेध में, राजा 'चेन' के प्रति कहे गये हैं:
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० श्राद्धं - शास्त्रविधानेन विकर्मत्यमरः । पिनुद्देश्यकश्रद्धयाऽनादि दानम् । " श्रद्धया दीयते यसात् श्राद्धं तेन निगलते' इति पुलस्त्यवचनात् । 'श्रद्धया असावेदन आएं' इति वैदिकप्रयोगाधीनयोगिकम्' इति श्राद्धतस्त्रम् । अपिच सम्बोधनपदोपनीतान् पित्रादीन् चतुर्थ्यन्त पनोद्दिश्य हरेिस्लागः श्राद्धम् । -- शब्दकल्पद्रुम ।
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