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[२३३] कैसे करूँ इसकी अपेक्षातोजोबस्तु पिताजीको प्रिय थी वही करूंगा। गीता का पारायण तीन दिन करूँगा और तीनों दिन १२ घण्टे रोज चार्वा चलाऊँगा"1-हि० नम
परंतु हमारे सोनीजी, बैन पंडित होकर मी, अमीतक' सकीर के सकार बने हुए हैं, 'बाबाबाक्यं प्रमाई की नीति का अनुसरण करना ही अपना धर्तन्य समझते हैं और लोगों को 'अन्धश्रद्धालु' बनने तथा बने रहने का उपदेश देते हैं, यह बड़ा है। आचर्य है। उन्हें कम से कम केशप माई के इस उदाहरण से ही कुछ शिक्षा सेनी चाहिये।
मेरा रिचार था कि मैं और भी कुछ विरुद्ध कथनों को दिखलाऊँ, विरुद्ध कथनों के कितने ही शीर्षक नोट किये हुए पड़े हैं-सासकर विषाचार के पूज्य देवता' शीर्षक के नीचे में कुदेवों की पूजा के दिखला कर उसकी विस्तृत माखोचना करना चाहता था परंतु उसके लिये चम्बा लिखने की बात की और सेन बहुत बढ़गया है इसलिये इस विचार को भी छोड़ना है। पड़ा। मैं समझता हूँ विरुद्ध कथनों का यह सब दिग्दर्शन काफी से भी ज्यादा छ गया है और इसलिये इतने पर है। सन्तोष किया जाता है।
इन सब विरुद्ध कथनों के गोन्द्र होते हुए और अनेन विषयों तथा वाक्यों के इतन मारी सग्रहको उपस्थिति --अपमा ग्रंथकी स्थिति के इस दिग्दर्शन के सामने-सोनाना के निम्न पापा का कुछ भी मुख्य नहीं रहता, मो उन्हनि ग्रंथ के अनुवाद की भूमिका में दिये है:
हमें तो प्रथ-परिशीलन से यही मालूम हुआ कि प्रधकर्ता की नैनधर्म पर असीम मलित थी, भबन विषयों सवे परहेज करते थे। जोग खामुखों अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये उनपर भवर्षवाद लगाते हैं।"
(२) "प्रथ की मूल मिचि प्रदिपुराण पर से सपी है।" mm.."इस ग्रंथ के विषय अपिप्रमति मागम में कभी सप से मोर