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[२३४] कही विस्तार से पाये जाते हैं । अतएव हमें तो इस ग्रंथ में न अप्रमाणता ही प्रतीत होती है और न भागमविरुद्धता है।"
मालूम होता है ये वाक्य गहन लिखने के लिये ही लिखे गये हैं, अश्या ग्रंथ का रंग जमाना ही इनका एक उद्देश्य जान पड़ता है । अन्यथा, ग्रंप के परिशीलन, तुलनात्मक अध्ययन और विषय की गहरी जाँच के साथ इनका कुछ भी सम्बंध नहीं है । सौनीनी के हृदय में यदि किसी समय विवेक जागून हुमा तो उन्हें अपने इन वाक्यों और इसी प्रकार के दूसरे वाक्यों के लिये भी, निन में से कितने ही ऊपर यथास्थान उद्धृत किये जा चुके हैं, खरूर खेद होगा और भाश्चर्य अथवा अंसमव नहीं जो वे अपनी भूब को स्वीकार करें। यदि ऐसा हो सका और शैतान ने कान में फँकन मारी तो यह उनके लिये निःसन्देह बड़े ही गैरव का विषय होगा।मस्तु ।
, उपसंहार।। ' त्रिवर्णाचार की इस सम्पूर्ण परीक्षा और अनुवादादि-विषयक मालोचना पर से सहृदय पाठकों तथा विवेकशील विचारकों पर पंप की असलियत खुले विना नहीं रहेगी और वे सहन ही में यह नतीजा निकाल सकेंगे कि यह ग्रंथ निसे महारानी 'निनेन्द्रागम' तक लिखते हैं वास्तव में कोई जैनग्रंथ नहीं किंतु जैनग्रंथों का कलंक है। इसमें रत्नकाण्डश्रावकाचारादि जैसे कुछ पार्ष प्रषों के वाक्यों का जो संमा किया गया है वह ग्रंथकर्ता की एक प्रकार की चालाकी है, धोखा है, मुखम्मा है, अथवा विरुद्धकयनरूपी बाली सिकों को चलाने भादि का एक साधन है। महारानी ने उनके सहारे से अथवा उनकी मोट में उन मुसलमानों की तरह अपना उल्लू सीधा करना चाहा है जिन्होंने भारत पर माक्रमण करते समय गौओं के एक समूह को अपनी सेना के आगे कर दिया था । और जिस प्रकार गोहत्सा के मय से हिन्दुओं