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[२०] स्तानार्थमभिगच्छन्तं देवाः पितृगणैः सह । वायुभूतास्तु गच्छन्ति कृपााः सलिलार्थिनः॥ निराशास्ते निवर्तन्ते पननिष्पीडने कते । अतस्वर्पणानन्तरमेव पलं निप्पीडयेत् ॥
-स्मृतिरत्नाकरे, वृद्धवसिष्ठः। परन्तु नियों का ऐसा सिद्धान्त नहीं है । जैनियों के यहाँ मरने के पश्चात् समस्त संसारी जीव अपने अपने शुभाशुभ कर्मों के मनुसार देव, मनुप्य, नरक, और तिर्यच, इन चार गतियों में से किसी न किसी गति में अवश्य चले जाते हैं | और अधिक से अधिक तीन समय तक निराहार रहकर तुरत दूसरा शरीर धारण करते हैं। इन चारों गतियों से अलग पितरों की कोई निराची गति नहीं होती, जहाँ वे विलकुल ही परावलम्बी हुए असंख्यात या अनन्तकाल तक पड़े रहते हो । मनुष्यगति में निस तरह पर वर्तमान मनुष्य-जो अपने पूर्वजन्मों की अपेक्षा बहुतों के पितर है-किसी के तर्पण जलको पोते नहीं फिरते उसी तरह पर कोई भी पितर किसी भी गति में जाकर तर्पण के जलकी इच्छा से विहत्त हुआ उसके पीछे पीछे मारा मारा नहीं फिरता। प्रत्येक गति में जीवों का माहारविहार उनकी इस गति, स्थिति तथा देशकाल के अनुसार होता है और उसका यह रूप नहीं है जो ऊपर घतलाया गया है । इस तरह पर महारकजी का यह सब कथन जैनधर्मके विरुद्ध है, जीवोंकी गतिस्थित्यादि-विषयक अजानकारी तथा अश्रद्धाकोलिये हुए है और कदापि जैनियों के द्वारा मान्य किये जाने के योग्य नहीं हो सकता।
यहाँ पर में इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि हिन्दुओं के कुछ प्रसिद्ध ग्रन्थों में भी इस बातका उल्लेख मिलता है कि जैनधर्म में इस सर्पल को स्थान नहीं है जैसाकि उनके पद्मपुराण के निम्न
+देखो 'आनन्दा मासिरीज़ पूना' की छपी हुई भावति। .