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तिस्रः कोट्यो ऽघंकोटी व पावोमाणि मानुषे । बसन्ति तावतीर्थानि तस्माथ परिमार्जयेत् ॥ १७ ॥ पिवन्ति शिरसो देवाः पिवन्ति पितरो मुखात् । मध्याच पक्षगन्धर्वा अधस्तात्सर्वजन्तवः ॥ १८ ॥
धर्षात् मनुष्य के शरीर में जो साढे तीनकरोड़ रोम हैं, उतनेही उसमें तीर्थ हैं। दूसरे, शरीर पर जो स्नान जब रहता है उसे मस्तक परसे देव, मुख परसे पिसर, शरीरके मध्य माग परसे यक्ष गंधर्व और नीचेके भाग परसे अन्य सब जन्तु पीते हैं। इसलिये शरीर के अंगों को पोंछना नहीं चाहिये (पौने से उन तीथोंका शायद अपमान या उत्थापन होनायगा, और देवादिकों के जल ग्रहण कार्य में विघ्न उपस्थित होगा !! ) |
जैन सिद्धान्तसे जिन पाठकों का कुछ भी परिचय दे वे ऊपर के इस कथनसे भने प्रकार समझ सकते हैं कि महारकजी का यह तर्पणविषयक कथन किसना जैनधर्म के विरुद्ध है। जैनसिद्धांत के अनुसार न तो देवपितरगण पानी के लिये भटकते या मारे मारे फिरते हैं और न सर्पण के जबकी इच्छा रखते या उसको पाकर तृप्त और संतुष्ट होते हैं । इसीप्रकार न वे किसी की धोती आदिका निचोड़ा हुआ पानी ग्रहण करते हैं और न किसी के शरीर परसे स्नानजलको पीते हैं। ये सब हिंदूधर्म की क्रियाएँ और कल्पनाएँ हैं। हिन्दुओं के यहाँ साफ लिखा है कि 'जब कोई मनुष्य स्नान के लिये जाता है तब प्यास से विद्दल हुए देव और पितरगण, पानी की इच्छा से वायु का रूप धारण करके, उसके पीछे पीछे जाते हैं । और यदि वह मनुष्य यही स्नान करके वक्ष (धोती ध्यादि) निचोड़ देता है तो वे देवपितर निराश होकर लौट भाते हैं । इसलिये तर्पण के पश्चात् वस्त्र निचोदना चाहिये पहले नहीं | जैसा कि उनके निम्नलिखित वचन से प्रकट है:--
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