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[२७] ने देष, ऋषि और पितर भेद से तीन प्रकार का तर्पण माना है (सर्प पशुचिः कुर्यात्यलाई स्नातको हिजा देवेच ऋषिभ्यश्च पितम्पक्ष यथा क्रमम् ॥ इति शातातपः) | मरकजी ने भी तीसरे अन्याय के परम७, ८, ९ में इन तीनों भेदों का इसी क्रम से विधान किया है। साप दी, हिन्दुओं की उस विधि को भी प्राय: अपनाया है जो प्रत्येक प्रकार के तपख को किस दिशा की ओर मुंह करके करने तथा भवतादिक किस किस द्रव्य द्वारा उसे कैसे सम्पादन करने से सम्बन्ध रखती है। परन्तु मध्याय के अन्त में भो तपसमंत्र मापने दिये हैं उनमें पहले अपियों काफिर पितरों का और मत में देवताओं का तर्पण मिला है।देवतामों के तर्पण, बईम्सादिक देषों को स्थान नहीं दिया गया किन्तु उन्हें ऋषियोंकी श्रेणी में रखा गया है. हालांकि पचने में गोतमादिमहर्षीयां (4) तपेये शापितीता' ऐसा व्यवस्थावाक्य था-भौर यह आपस नोशन अथवा बनावैचित्र्य है। परंत इन सब बातों ने भी छोड़िये, सबसे बड़ी बात यह है कि महारानी ने सर्पण का सब भाशप और अभिप्राय प्रायः वही रहा है जो हिंदुओं का सिद्धान्त है। वर्षात् , यह प्रकट किया है कि पितरादिक को पानी या तिखोदकादि देकर उनकी वत्ति करना चाहिये, तर्पण के बात की देव पितरायाचा रखते हैं, उसको माया करते है और उससे दम होते हैं। जैसाकि नीचे दिपायों से प्रकट :--
मका ये विनमाया पिता सुरः। तप सोपलस्यर्थ दीपसे सिर मया ॥१९॥
मर्याद-बो को पितर संस्कारविहीन भरे हो. बस की का रखते हो, और नो कोई देव नत की कारखवेहों, उन सब के सन्तोष तपातुति के लिये में पानी देता है-जल से तर्पण करता है।