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[nj अनुकूलन पीकर अथवा कुछ लोकविरुद्ध समझ कर जो उस पर पर्दा डालने की चेष्टा की है वह कितनी नीच, निःसार तथा जघन्य है और साथ ही विद्वचा को कलंकित करने वाली है। ।
जो लोग इस त्रिवर्णाचार पर अपनी 'अटल श्रद्धा का ढोग पीटते हुए उसको प्रामाणिक ग्रंथ बतलाते हैं और फिर नियों के पुनर्विवाह का निषेध करते हैं उनकी स्थिति नि:संदेह बड़ी ही विचित्र और करुणाजनक है। वे खुद अपने को ठगते हैं और दूसरों को उगते फिरते हैं !! उन्हें यदि सचमुच ही इस ग्रंप को प्रमाण मानना था तो सियों के पुनर्विवाहनिषेध का साहस नहीं करना था क्योंकि बियों के पुनर्विवाह का विधान तो इसमय में है ही, यह किसी का मिटाया मिट नहीं सकता।
तर्पण, पाद और पिण्डदान। (२८) हिन्दुओं के यहाँ, बान को अंग वरूप, तर्पया नाम का एक नित्य कर्म वर्णन किया है । पितरादिका को पानी या विनोदक (तिलों के साथ पानी ) आदि देकर उनकी कृति की जाती है, इसीका नाम तर्पण है । तर्पण के जस की देव और पितरगण इच्छा करते हैं, 'उसको ग्रहण करते हैं और उससे तुम होते हैं, ऐसा उनका सिद्धान्त है। यदि कोई मनुष्य नास्तिक्य भाव से पर्याद , यह,समा कर कि 'देव पितरों को नचादिक नही पहुंच सकता, तर्पण नहीं करता है तो मन के इच्छुक पितर उसके देह का कपिर पीते है, ऐसा उनके यहाँ योगि याज्ञवल्क्य का वचन है । यथा:
* मामाजी कासलीवाल ने मी १० वर्ष हुए 'सत्यवादी' में प्रकाशित अपने के द्वारा यह घोषणा की थी कि-"मेरा जोमलेगा कृत त्रिवाधार प्रथ पर, कोट अमान है और में उसे प्रमावीक