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इसी तरह पर ९७५ में पब में प्रयुक्त हुए 'दत्त' पद का भ भी 'वारसा कन्या' गत किया गया है, जो पूर्वोक्त हेतु से किसी तरह भी वहाँ नहीं बनता । इसके सिवाय, 'पतिसंगादधः' का कार्य आपने, 'पति के साथ संगम-सभोग हो जाने के पश्चात् ' न करके,
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'पाणिपीडन से पहले' किया है- 'प्रतिसंग' को 'पाणिग्रहण' बतलाया है और 'छावः' का अर्थ 'पहले' किया है। साथ ही, 'प्रवरे: क्यादिदोषाः ' के अर्थ में 'दोषा' का अर्थ छोड़ दिया है और 'आदि' को 'ऐक्य' के बाद न रखकर उसके पहले रक्खा है, जिससे कितना ही अर्थदोप उत्पन्न हो गया है। इस तरह से सोनीजी ने इन पदों के
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उस समुचित अर्थ तथा भाशय को बदल कर, जो शुरू में दिया गया है, एक छतयोनि स्त्री के पुनर्विवाह पर पर्दा डालने की श्रेष्ठा की है। परन्तु इस ष्ट से उस पर पर्दा नहीं पड़ सकता । 'पतिसंग' का अर्थ यहाँ 'पाणिपीडन' करना विडम्बना मात्र है और उसका कहीं से भी समर्थन नहीं हो सकता । 'संग' और 'संगम' दोनों एकार्थवाचक शब्द हैं और वे स्त्री-पुरुष के मिथुनीभाष 'को सूचित करते हैं' (.संगमः, संग श्रीपुंसेोर्निथुनी मावः ) जिसे,
संभोग और Sexual intercourse भी कहते हैं। शब्दकल्पद्रुमं में.
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इसी भाशय को पुष्ट करने वाला प्रयोग का एक अच्छा उदाहरण भी. दिया है जो इस प्रकार है:
अम्बिका व यदा स्नाता नारी ऋतुमती तदा । संग प्राप्य मुनेः पुत्रमताम्बं महाबलम् ॥
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'अप' शब्द 'पूर्व' या 'पहले' अर्थ में कभी व्यवहत नहीं होता परंतु 'पञ्चात्' अर्थ में वह व्यवहन करूर होता है; जैसाकि 'अ' पद से जाना जाता है जिसका अर्थ है 'भोजनान्तं पाथ'मान' नलादिक' - मोजन के पश्चात पीये जाने वाश्च जनादिक (a dose