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[२०८] पुनर्विवाह पर पर्दा डालने के लिए, उस पदों के प्रकृत और प्रकरणसंगत अर्थ को बदबने की चेष्टा की है । अन्यथा, 'दत्ताम्' का 'पाग्द्रान में दी हुई अर्थ तो किसी तरह भी नहीं बन सकता था, क्योंकि चतुर्थी के सोनीजी द्वारा आविष्कृत अर्थानुसार भी जब विवाहकार्य पाणिग्रहण की अवस्या तक पहुंच जाता है तब कन्यादान हो 'प्रदान' नाम की दूसरी क्रिया में ही हो जाता है और उस वक्त वह कन्या 'कन्या' न रहकर 'वधू' तथा पाणिग्रहण के अवसर पर पत्नी' बन जाती है। फिर भी सोनीली का उसे 'वाग्दान में दी हुई कन्या' लिखना और अन्यत्र यह प्रतिपादन करना कि विवाह कन्या का ही होता है' छुल नहीं तो
और क्या है ? आपका यह छत याबवल्क्यस्मृति के एक टीकायाक्य के अनुवाद में भी जारी रहा है और उसमें भी आपने 'वाग्दान में दी हुई कन्या' जैसे भयों को अपनी तरफ से लाकर घुसेडा है । इसके सिवाय उक्त स्मृति के 'दत्वाकन्याहरन दरख्यो व्ययं दधाच सोदयं' को उसी । विवाह) प्रकरण का बतलाया है, निसका कि 'दत्तामपि हरेत्पूर्वोच्छेयांश्चदर भावजेत् वाक्य है. हालांकि यह वाक्य भिन्न अध्याय के मिन्न प्रकरण (दाय माग) का है तथा वाग्दत्ताविषयक स्त्रीधन के प्रसंग को लिये हुए है, और इसलिये उसे उधृत करना ही निरर्षक पा।दूसरा वाक्य जो उद्धृत किया गया है उससे मी कोई समर्थन नहीं होना-न उसमें 'चतुर्थीमध्ये पद पड़ा हुआ है और न 'दत्ताम्' का अर्थ ठीका में ही 'वाग्दत्ता' किया गया है। बाकी टीका के अन्त में
साकि 'प्रामामात् भवेत्कम्या' नाम के उस माश्य से प्रकट है जो इस प्रकरण के शुरू में उन किया जा चुका है। हाँसोनीजी ने अपने उस लेख में लिखा है कि "तीमपली तक कन्या संशा रखती है, पश्चात् चौथीपदी में उसकी कन्या संज्ञा दूर होजाती है। यह लिखना मी प्रापका शायद वैसा ही अटकलपच्चू और बिना सिर पैर का मान पड़ता है जैसा कि सनसोकों को मनुस्मृति के बतलाना। .