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[२०७] नही सोमीनी ने, चतुकर्म-विषयक मारे पूर्वकथन पर पानी फेर कर १७४ वै पध में प्रयुक्त हए 'चतुर्थीमध्ये पद का अर्थ अपने उस लेख में, बोधी पदी किया है और उस पर यहाँ तक जोर दिया है कि इसका अर्थ " चौथी पदी ही करना पड़ेगा", "चौथी पदी ही होना चाहिये ", " मराठी टीकाकार ने भी भूल की है । परंतु अपनी मनुवादपुस्तक में जो अर्थ दिया है या इससे मिल है। मालूम होता है बाद में भापको पंचागविवाह के चौथे अग (पाणिग्रहण ) का कुछ बयान माया और वही चतुर्थी के सत्यार्थ पर पर्दा डालने के लिये अधिक उपयोगी बैंचा है । इसलिये आपने अपने उक्त पाक्यों और उनमें प्रयुक्त हुए 'ही' शब्द के महत्व को मुनाकर, उसे ही चतुर्ण का याव्य बना भाषा है ! बाकी 'बत्तास् ' पद का पहा यवत अर्थ 'वाग्दान में दी हुई कायम रखा है, जैसा कि पूरे पथ के पापके निम्न अनुवाद से प्रकट है:
पाणिपीडम नाम की चौपी क्रिया में अपना सतपदी से पहले पर में जातिधुतरूप, होननातिरूप या दुराधरणाप दोष मालूम हो बायें तो वाग्दान में दी हुई कन्या को उस पिता किसी दूसरे श्रेष्ठ जाति अादि गुणयुक्त बर को देवे, ऐसा बुद्धिमानों का मत है। '
पूर्वकपनसम्बन्ध को सामने रखते हुए, को ऊपर दिया गया है, इस अनुवाद पर से यह गाम महीं होता कि सोनीजी को 'चतुर्षाकर्म' का परिचय नहीं था और इसलिये 'चतुर्थीमध्ये तथा 'दत्ता' पदों का अर्थ उनके द्वारा भूल से पत प्रस्तुत किया गया है। परिक यह साफ माना जाता है कि उन्होंने बान बुखार, विवाहिता नियों के
मराठी काकार पं. कमाया मरमाया निधे से "वषया विषशी छत्य होण्याच्या भूचि "अर्थ दिया है।