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[२०५] कि पराशरनी ने विधवाविवाह का निषेध किया है उसी तरह महारानी के उक्त वाक्य पर से भी कोई समझदार यह नतीजा नहीं निकाल सकता कि महारफनी ने विधवाविवाह का सर्वथा निषेध किया है । उस वाक्य का पूर्वकथनसम्बन्ध से इतना ही भाशय जान पड़ता है कि जो विधवा बिनदीक्षा अथवा वैधव्यदीक्षा धारण कर सके तो यह बहुरा अच्छा हैअभिनन्दनीय है-अन्यथा, विधुरों की तरह साधारण गृहस्थ का मार्ग उसके लिये भी खुला हुभा है ही।
अब मैं उस भावरण को भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ जो पुनविवाइ-विषयक पच नं० १७४, १७५ और १७६ पर डाला गया है
और जिसके नीचे उस सत्य को छिपाने की चेष्टा की गई है जिसका उल्लेख ऊपर उन पदों के साथ किया जा चुका है.--मले ही लेखक कितने ही अंशों में भधारकत्री के उस कथन से सहमत न हो अथवा अनेक दृष्टियों से उसे आपत्ति के योग्य सगमता हो ।
इस विषय में, सबसे पहले मैं यह बतला देना चाहता है कि इन पद्यों को, मागे पीछे के तीन और पर्चा सक्षित, 'मन्यम' के लोक बतलाया गया है और उसकी एक पहचान इन पदों के शुरू में श्रष विशेष' शब्दों का होना बताई गई है, जैसा कि परिक्षत पनामालनी सोनी के एक दूसरे लेख के निम्न वाक्य से प्रकट है, जो ' सत्यवादी' के छठे भाग के अंक नम्बर २-३ में प्रकाशित हुआ है:
" महारक महारान अपने अन्य में जैन मत का वर्णन करते हुए अन्य गतों का भी वर्णन करते गये हैं, निसकी पहचान के लिये अप विशेषः, अन्यमतं, परमतं, स्मृतिवचनं और इति परमत
स्मृतिषचनं इत्यादि शब्दों का उल्लेख किया है।" • यद्यपि मूल अन्य को पढ़ने से ऐसा मालूम नहीं होता-उसके 'अन्यमत' परमत' जैसे शब्द दूसरे जैनाचार्यों के मत की भोर इशारा