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खाट
है। और इसलिये यदि कोई विधवा निनदीक्षा धारना न कर सकें और वैधव्यदीक्षा के योग्य देशजत का ग्रहण, कण्ठसूत्र और कर्णभूषण आदि सम्पूर्ण आभूषणों का त्याग, शरीर पर सिर्फ दो वनों का धारण, पर शयन तथा अंजन और लेप का त्याग, शोक तथा रुदन और चिकथाश्रवण की निवृत्ति, प्रातः स्नान, आचमन आणायाम और तर्पण की नित्य प्रवृत्ति, तीनों समय देवता का स्तोत्रपाठ, द्वादशानुप्रेक्षा का चिन्तयन, साम्बूसवर्जन और लोलुपतारहित एक बार भोजन, ऐसे उन सब नियमों का पालन करने के लिये समर्थ न होवे जिन्हें भट्टारकजी ने, 'सर्वमेतद्विषीयते' जैसे वाक्य के साथ, वैधव्यदीक्षा - प्राप्त स्त्री के लिये आवश्यक बतलाया है, तो यह विधवा भट्टारकजी के उस पुनर्विवाह-मार्गका अवलम्बन लेकर यथाशक्ति श्रावकधर्म का पालन कर सकती है; ऐसा भट्टारकनी के इस उत्कृष्ट कथन का पूर्व कथन के साथ आशय और सम्बन्ध जान पड़ता है । 'पाराशरस्मृति' में भी विधवा के लिये पुनर्विवाह की उस व्यवस्था के बाद, उसके ब्रह्मचारिणी रहने आदि को सराहा हैलिखा है कि 'जो स्त्री पति के मर जाने पर ब्रह्मचर्यव्रत में स्थिर रहती हैवैधव्यदीक्षा को धारण करके दृढ़ता के साथ उसका पालन करती है वह मर कर ब्रह्मचारियों की तरह स्वर्ग में जाती है। और जो पति के साथ ही सती हो जाती है वह मनुष्य के शरीर में जो साढ़े तीन करोड़ बाल है उतने वर्ष तक स्वर्ग में वास करती है। यथा: ---
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मृते मटेरिया नारी ब्रह्मचर्यवते स्थिता ।
सामृता क्षमते स्वगं यथा ते ब्रह्मचारिणः ॥ ३१ ॥ विनः कोटपोर्यकोटी व यानि लोमानि मानवे । सावत्कालं वसेत्खर्गे भर्तारं वाऽनुगच्छति ॥ ३२ ॥ पाराशरस्मृति के इन वाक्यों को पूर्ववाक्यों के साथ पढ़नेवाला कोई
मी सहृदय विज्ञान जैसे इन वाक्यों पर से यह नतीजा नहीं निकाल सकता