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धास्य पहले उधृत किया ही जा चुका है। सोनीनी को यदि अपने घर की ही खबर होती तो वे सोमवनीति से नहीं तो प्राचार्य अमितयतिका धर्मपरीक्षा परसे ब्राह्मणों का हाल मालूम कर सकते थे और यह जानसकते थे कि उनके पागम में विधवाविवाह का विधान है। धर्मपरीक्षा काचह'पत्यौमत्रजिते'वाक्य ब्राह्मणोंकी विधवाविवाह-विधिको प्रदर्शित करनेके लिये ही लिखा गया है, जैसाकि उससे पूर्वक निम्नवाक्य से प्रकट है:
तैयतं विधवां शापि त्वं संगृह्य मुखी भव । नोमयोर्षियते दोप इत्युक्तस्तापसागमे ॥ ११-११॥ धर्मपरीक्षा के चौदह परिच्छेद में भी हिंदुओं के खी-पुनर्विवाह का उल्लेख है और उसे स्पष्टरूप से व्यासादीनामिदं वचः' के साथ उल्लेखित किया गया है, जिसमें से विधवाविवाह का पोषक एक वाक्य इस प्रकार है:
एकवा परिणीताऽपि विपन्ने दैवयोगतः । भयक्षतयोनिः स्त्री पुनःसंस्कारमईति ॥ ३ ॥
अतः सोनीबी का उक्त लिखना उनकी कोरी नासमझी तथा प्रज्ञता को प्रकट करता है | और इसी तरह उनका यह लिखना गी मिथ्या ठहरता हकि "विवाहविधि में सर्वत्र कन्याविवाहही बतलाया गया है"। बल्कि यह महारकजी के 'शूद्रापुनर्विवाहमएडने वाक्य के भी विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि इस वाक्य में जिस शुद्धा के पुनर्विवाह का उल्लेख है उसे सोनीजी ने 'विधवा' स्वीकृत किया है-~-मने ही उनकी दृष्टि में वह असत् सदा ही क्यों न हों, विधवा और विवाह का योग तो हुआ। __ यहाँ पर मुझे विधवाविवाह के औचित्य या अनौचित्य पर विचार करना नहीं है और न उस दृष्टि को लेकर मेरा यह विवेचन है मेरा उद्देश्य इसमें प्रायः इतना ही है कि भट्टारकनी के पुनर्विवाहविषयक कथन को
भौषित्यानौविस्य-विचारको रिले एक जुकाहीद नियन्ध तिक्षा नाने फीजमरत है, जिसके लिये मेरे पास अभी समय नहीं है।