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जहाँ जैसा मत निकालना हुआ वहाँ वैसा अर्थ कर देना ही आपको रहा है? यदि सोमदेवजी की नीति का है। प्रमायण देखना था तो een तो साफ़ लिखा है
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विपापि पुनर्विवाहमईतीति स्मृतिकारा ।'
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अर्थात् जिस विवाहिता स्त्री का पति विकारी हों या जो सदोष पति के साथ विवाही गई हो -- वह भी पुनर्विवाह करने की अधिकारिणी है--- अपने उस विकृत पंति को छोड़कर या तलाक देकर दूसरा विवाह कर सकती है ऐसी स्मृतिकारों का -- धर्मशास्त्र के रचयितार्थी का मत है (जिससे सोमदेवजी मी सहमत हैं----सभी उसका निषेध नहीं किया) ।
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यहाँ 'अप' ( भी ) शब्द के प्रयोग से यह भी साफ़ ध्वनित हो रहा है कि यह वाक्य महक सभा के पुनर्विवाह की ही नहीं किन्तु
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'विधवा के पुनर्विवाह की' भी विधि को लिये हुए है ।' स्मृतिकारों ने दोनों का ही विधान किया है।
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इस सूत्र की मौजूदगी में 'सकृत्परिणयन व्यवहाराः सच्छद्र " 'सूत्र' पर से यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि शूद्रों के सद् शूद्र नि का हेतु उनके यहाँ त्रियों के पुनर्विवाह का न होना है और इसलिये परियों * के लिये पुनर्विवाह की विधि नहीं बनती-जो करते हैं वे सच्छूद्रों से भी गये बीते है । इतने पर भी सोनीजी पैसा नतीजा निकालने की चेष्टा करते हैं, यह आश्चर्य है ! और फिर यहाँ तक लिखते हैं कि "जैनागम में ही नहीं, बल्कि ब्राह्मण सम्प्रदाय के श्रागस में भी विधवाविवाह की विधि नहीं कही गई है।" इससे सोनीजी' का ब्राह्मणग्रंथों से ही नहीं किंतु जैनों से भी खासा अज्ञान पाया जाता है - उन्हें ब्राह्मण सम्प्रदाय के ग्रंथों का ठोक 'पता नहीं, नाना मुनियों के नाना मत मालूम नहीं और न अपने घर की ही पूरी ख़बर हैं। उन्होंने विधवा विवाह के निषेध में मनु का जो 'वाक्यं 'न'विषाहविषा विधवावेदन पुनः उदूत किंवा
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