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[१ ] की जैन श्री के पुनर्विवाह के समय सी को पति के दाहिनी मोर बिठं-- शाना चाहिये, जिससे यह भी धनि निकलनी है कि प्रशदा अर्थात् प्रामण, इत्रिय और वैश्य जाति की मैन लियों के पुनर्विवाह के समय पैसा नहीं होना चाहिये-वे बाई और बिठलाई जानी चाहिये । अतः पापका बह पूरा वाक्य इस प्रकार है'गर्भाधाने पुंसवने सीमन्तोषयने तथा।।
धू मवेशने शवा पुनर्विवाहमण्डने। पूजने सदेच्याच कन्यादाने वर्षय छ। की खेतेपु माया दक्षिणे रुष पेशयेत् ।।
-घा अभ्याप ॥ १९६-१७ ॥ इस पाक्य के 'शूद्रा पुनर्विवाहमण्डने पद को देख कर, सोनाली कुछ बहुत ही चकित तथा विचलित हुए मालूम होते हैं, उन्हें इसमें मूर्तिमान विधवाविवाह अपना मुंह बाए हुए मार पाया है और इसलिये उन्होंने उसके निषेव में अपनी सारी शक्ति खर्च कर डाली है। वे चाहते तो इतना कहकर छुट्टी पा सकने ये कि इसमें विधवा के पुनर्विवाह का उल्लेख नहीं किन्तु महक शक्षा के पुनर्विवाह का उल्लेख है, जो सधवा हो सकती है । परंतु किसी तरह का समापुनर्विवाह भी आपको इष्ट नहीं था, आप दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं देखते
और सायद यह भी समान से सिफारिका के रखीकार कर लेने पर विधवाविवाह के निषेध में फिर कुछ बचा ही नहीं रह जाता। और विधवाविवाह का निषेध करना आपको खास तौर से इष्ट था, इसलिये उक्त पद में प्रयुक्त हुए 'पुनर्विवाह' को 'विधवाविवाह मान कर हो मापने प्रकारान्तर से उसके निषेध की चेष्टा की है। इस चेष्टा में मापको शद्रों के सत् , असत् भेदादि रूप से कितनी ही इधर उधर की कल्पना करनी और निरर्षक बातें शिखनी पड़ी-मूत्र मेप से बाहर