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[१७]] हो कि विवाह किम पिड़िया का नाम है-सर्वथा निषध किया हो कि स्थान पर सो गारकामी, कुच नियम विधान करते हुए, लिखते हैं।
यस्यायनामिका हरवा तां विदुः कलहप्रियाम् ।। भूमि न मयते यस्याः खादते सा पतिद्वयम् ।। ११-१४
भाद-जिस सी को मनामिका अगुखी छोटी हो यह कलहकारखी होती है, और जिसकी वह भंगुनी भूमि पर न टिकती हो वह अपने * दो पतियों को खाती है उसके कम से कम हो विवाह पर होते हैं और वे दोनों ही विवाहित पति मर जाते हैं।
मारमनी के इस नियम-विधान से यह सब शाहिर है कि बैन समान में ऐसी भी कन्याएं पैदा होती हैं जो अपने शारीरिक लक्षणों के कारण एक पति के मरने पर दूसरा विवाह करने के लिये मजबूर होती है-तमी थे दो पतियों को साकार इस नियम को सार्थक कर सकती है और एक पति के मरने पर श्री का बो दूसरा विवाह किया माता है वही विधवाविवाह कसाता है । इसलिये समाज में नहीं नहीं समान की प्रत्येक नाति में-विधवाविवाह का होना अनिवार्य ठहरता है, क्योंकि शारीरिक अक्षयों पर किसी का यश नहीं और यह नियम समाज में पुनविवाह की व्यवस्था को माँगता है। अन्यथा महारानी का यह नियम ही चरितार्थ नहीं हो सकता ह निरर्थक हो बाला है।
और दूसरे स्थान पर मट्टारकनी में श्रद्धा पुनर्विवाहमराहने श्रादि धाक्य के बारा यह स्पष्ट घोषणा की किसान पाति
महाएफसीका यह को पतियों को खासी है पाक्य-प्रयोग कितमा अशिष्ट और मसंयत भाषा कोहिये हुए है उसे पतलाने की तारत महीं। अब 'मुनीन्द्र' कामाने पावे की ऐसी मर्मविदारक मिन्य भाषा का प्रयोग करते हैं तप किसी लड़की के विषा होने पर उसकी सावं पदि यह करती है कि'ने मेगावाविया को इसमें प्राय
क्या है" बदर विषयामों के प्रति सिम्यक्तार।