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[१५] के निषेधक रहे होंगे और इसलिये अब तक गायव अषि के किसी वाक्य से यह सिद्ध न कर दिया जाय कि विधवाविवाह के निषेधक नहीं थे तबतक भारवानी ने का सामान्य व्यवस्था माक्य में०१७६ पर से बोबोग विधवा विवाह का माशय निकालते हैं उसपर माई खास आपति नहीं की जा सकती। सगाई (मैगमी) हुई हो किन्तु विवादमा हो। पेस गों को मालूम होना चाहिये किसक के असरा में जो ' पतिरन्यो' (दुसरा पति) पाठ पहा माया पूषार्थ में 'पती' की ही स्थिति कोषाहता--'तो' की मी-अर्णत किसके मरने वगैरह पर इसरे पनि की व्यवस्था की गई है या पनि होगा चाहिये 'भपति 'मही । और 'पति' का सीको दी जाती है जो विधिपूर्वक पाणियाण संस्कार संस्कारित होकर सतपदी को मासमा हो पाक पादान यह की पमह से किसी को, पतित्व' की प्रालिमही होती; जैसा कि जवाहतस्व' में दिये हुए ''ऋषि केमिन पाय से प्रकट
गोधेग मया बाया कन्याया पतिरिष्यने ।
पाक्षिणायसंस्कार पनि सतमे पद ॥ (शब्दकल्पदुम) प्रसक सिवाय इतमा और भी जान लेना चाहिये कि प्रथम at पहा प्रयोग, और शार्प प्रयोग कमी कमी व्याकरण से मित्र भी है। दूसरे, अन्य की दृष्टि से कवि योग अनेक पारव्याकरण के नियमों का उल्लंघन कर जाम है, जिसके प्राचीन साहित्य में भी कितने ही बाहरण मिलते हैं। बस संभव है 'पत्यो की जगह 'पी' हा प्रयोग न की टिकिया गया हो प्रत्यक्षा पराशरजीसम्मके पस्यो कप सभी अमिक थे औरचन्होंने अपनी, स्मृति में 'पत्या' पथ का भी प्रयोग किया है, जिसका एक उदाहरण 'पत्यो जीवति कुपवस्तुस्त मतरिगोलका (५-२३) है। तोरपा पक्षका प्रयोग शक स्मृति में मन्या भी पाया जाना, जिसका प्रपती'वनीमडी सकता। और उस पणेगवाक्य, से यह साफ जाहिर है कि जोखा पति के मरने, खो आये, अथवा उसके त्याग देने पर पुनर्विवादम करके जार से गर्म पार करती है उसे परारजी ने 'पविता' और 'पापकारिती लिखा है-उन