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[१६] . इसके सिवाय नो भारकामी पति के दोष मालूम होजाने पर पूर्व विवाहकों ही रह कर देते हैं, संमोग होजाने पर भी स्त्री के लिये दूसरे विवाह की योजना करते हैं. तलाक की विधि बताकर परित्यक्ता त्रियों के लिये पुनर्विवाह का मार्ग खोजते अषया उन्हें उसकी स्वतंत्रता देते हैं, कागयज्ञ रचाने के बदेही पक्षपाती मान पड़ते हैं, योनिपूना तक का उपदेश देते हैं, ऋतुकास में मोग करने को बहुत ही आवश्यक समाने हैं, और ऋतुकाल में भोग न करने वाली त्रियों को तिथंच गति का पात्र ठहराते हैं-इतना अधिक जिनके सामने उस भोग का महत्व है-उनसे ऐसी पाशा भी नहीं की जा सकती कि उन्होंन विधवाओं के पुनर्विवाह का--उन नन्ही नन्हीं बातविधयानों के पुनर्विवाह का मी जो माल फेरों की गुनहगार हों और यह भी न जानती. की दृष्टि में 'बार' इमरा पति (पतिरम्या) नहीं हो सकता दूसरा पति प्रहण करने का पुनर्विवाह को विधिविधि और बारसे रमणको निन्ध तथा पयनीय हाराते हैं । यथाः
जारेण जनयेम सुने त्यके गते पनो। मात्प र राष्ट्रे पतितां पापकारिणीम् ॥ १०-३१॥
और चौथे यह बात भी नहीं कि व्याकरण से इस 'पती' कर की सया सिद्धिहीन होती हो, सिद्धि भी होती है, जैसाकि अशा ध्यायी के 'पतिः समास एवं सूत्र पर की 'तत्वबोधिनी टीका के मिस अंश से प्रकट है, जिसमें उदाहरण मी देवयांग से पराशरजी का उक लोक दिया है:
अथ कथ" सीतायाः पतये नमः" इति " नष्टे सूते प्रबजिते क्लीवे च पतिते पतो। पंच स्वापन्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते " इति पराशरण मन्त्राः। पतिरित्याख्याता पनि:-तस्करोति तदाब' इति णिचि टिका 'अचपसाणाविक प्रत्यये परमिट' इति शिवोपे च निष्पोऽयं पति पति समासव' इत्यत्रम गृह्मवे साक्षलिकत्वादिति ।
श्रता 'पती'का अर्थ 'पत्यौ'ही है। भोरखलिये जो होग उसके इस समाधान अर्थ को बदलने का निखार प्रयक्ष करते हैं घामको भूल है।