________________
[१७] छप-संकीर्णता व्यक्त करना है और पाखण्ड का का उपदेश देना है। ऐसी ही शसत उन लोगों से कभी कोई चीच न लेने के उद्वार की है। उनसे अच्छी, उपयोगी तथा उत्तम चीनों का न्यायमार्ग से लेना कमी दूषित नहीं कहा जा सकता । ऐसे लोगों में से कितने ही व्यक्ति बंगलों, पहायों, समुद्रों तथा भूगर्भ में से अच्छी उतम उत्तम चीने निकालते हैं। क्या उनसे वे बोलें कर लाम न उठाना चाहिये ! स्या ऐसे लोगों द्वारा वन-पर्वतों से छाई हुई उसम भोषों का भी व्यवहार न करना चाहिये ! और क्या चमारों से उनके घनाये हुए मृत धर्म के जूते भी खेने चाहिये । इसके सिवाय एक मुसलमान, ईसाई अथवा वैसा (उपर्युक्त प्रकार का) कोई हानाचरण करने वाला हिन्दू भाई पदि किसी भीषघालय, विद्यालय अथवा दूसरी धोकोपकारिणी सेवा संस्था को न्यादि की कोई भी सहायता प्रदान करे तो क्या उसकी यह सहायता संख्या के अनुरूप होते हुए भी स्वीकार न करनी चाहिये ! और क्या इस प्रकार का सब व्यवहार कोई बुद्धिमानी कहला सकता है ! कदापि नहीं। ऐसा करना अनुभवशून्यता का घोतक और अपना ही नाशक है। संसार का सब काम परस्पर के लेनदेन और एक दूसरे की सहायता से धनता है। एक मनीमार सीप में से मोती निकाल कर देता है और बदले में कुछ द्रव्य पाता है अथवा एक चमार से बूता या चमड़ा लिया जाता है तो मूल्यादि के तौर पर उसे कुछ दिया जाता है। इसी तरह पर शोक व्यवहार प्रवर्तता है । क्या यह मोती जो मास में ही पैदा होता तथा प्रद्धि पाता है उस मालीमार का छाप लगने से अपवित्र या विकृत हो जाता है ! अथवा वह धमका चमार के कर-स्पर्श से विगुणित और दूषित बन जाता है। यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर उन लोगों से कोई भी चीस न लेने के लिये कहना क्या .अर्ष रखता है। यह निग्री सीता और हिमाकत नही