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पाठकजन देखा, कितनी सभ्यता और शिष्टता को लिये हुए कपन है। एक 'धर्मरसिक' नाम घगन वाले ग्रंथ के लिये कितना उपयुक्त है । और अपने को 'मुनि' 'गणी' तथा 'मुनीन्द्र' तक लिखने घाले महाकाली को कहाँ तक शोमा देता है खेद है महारकली को विषय-सेवन का इस वख पर खुला उपदेश देते और खी-सभोग की स्पष्ट विधि बतलाते हुए जरा भी लब्बा तथा शरम नहीं भाई ॥ निन बातों की चर्चा करने अपवा कहने सुनने में गृहस्यों तक को संकोच होता है उन्हें वैराग्य तथा ब्रह्मचर्य की मूर्ति बने हुए मुनिमहाराजजी बड़े चाव से लिखते हैं यह सब शायद कलियुग का ही माहात्म्य है !!मुझे तो महारकनी की इस रचनामय लीला को देखकर कविवर भूधरदासजी का यह वाक्य याद आजाता है
रागडदै जग अंध भयो, सहजै सत्र कोगन लाज गवाई। । सीख बिना मर सीसन है, विषयादिक सेवन की सुधराई ।। ता पर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये निनकी निठुराई।
अंध असूझन की जियान में झांकन है रज रामदुहाई !! . सचमुच ही ऐसे कुकषियों, - धर्माचार्यों अपवा गोमुखल्याों से राम बचाव ! ये खयं तो पतित होते ही हैं किन्तु दूसरों को भी पतन की ओर ले जाने हैं। उनकी निष्ठुरता, नि:मन्देह, अनिर्वचनीय है । भट्टारकनी के इन उद्गारों से उनके हृदय का भाव मानता हैकुरुचि तथा लम्पटता पाई जाती है-और उनके ब्रह्मचर्य की पाह का
इच्छापूर्ण भवेचाच भयोः कामयुक्तयोः ।
लामिचेतना योन्या चेन गर्ने विति सा ॥४॥ ४१ का उत्तगर्घ और इस पद्य का उत्तरार्ध दोनों मिल कर हिन्दुओं के प्राचारार्क ग्रंथ का पक गय होता है, जिसे संभवतः यहाँ विमक करके रक्खा मशहै।