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बधे मर जाते हों उसे पंद्रहवें वर्ष और जो अप्रियशदिनी (बटु गावया करने वाली ) हो व फैन ( तत्काल ही ) त्याग देना चाहिये | भट्टारकभी के इस 'त्याग' के दो अर्थ किये जा सकते हैं एक 'समोगस्याग' और दूसरा वैवाहिक सम्बंधस्था'। 'संभागन्याग' अर्थ भट्टारकञ्ची के पूर्वकथन की दृष्टि से कुछ संगत मालूम नहीं होता; क्योंकि ऐसी खियाँ गी तथा खाता तो होती ही है और ऋतुकाल में ऋतुजाताओं से भोग न करने पर महार कबी ने पुरुषों का भ्रूणहत्या के घोर पाप का अपराधी ठहराया है और साथ में उनके पितरों को भी घसीटा है; ऐसी हालत में उनक इस वाक्य से 'संभोगत्याग' का ध्याशय नहीं लिया जासकता वह भापति के योग्य ठहरता
है तब दूसरा 'वैवाहिक सम्बन्ध त्याग' धर्म ही यहाँ ठीक बैठता
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,जिसे 'तलाक' Divorce करते है और ना उक्त पाप से मुक्ति दिखा सकता अपना सुरक्षित रख सकता है। इस दूसरे धर्म की पुष्टि इससे भी होती है कि महारकजी मे संभोगस्याग की बात को मतान्तर रूप से दूसरों के गत के तौर पर (अपने सत के तौर पर नहीं)-- अगले पक्ष में दिया है। और वह पथ इस प्रकार है: --
व्याधिना समजा चन्पा उन्मत्ता विगतार्तया । अदुष्टा समते त्यायं तीर्थतो न तु धर्मतः ॥१६८॥
इस पथ में बताया है कि 'को श्री (चिरकाल से) रोगपीडित हो, जिसके कन्याएँ ही पैदा होती रही हो, जो पन्ध्या हो, त हो, अथवा रजोधर्म से रहित हो (रजस्वलाम होती हो ) ऐसी श्री यदि दुष्ट स्वभाष पासी न हो तो उसका मदन कामतीर्थ से स्वाग होता है - यह संभोग के लिये स्याज्य ठहरती हैपरतु धर्म से नहीं वर्ग से उसका पतीसम्बंध बना रहता है।
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+ मराठी अनुवाद-पुस्तक में पद्म के ऊपर मतान्तरं ' की अनुवाद " दुसरं मतं " दिया है परन्तु सोमीजी अपनी अनुवाद पुस्तक में उसे बिलकुल ही बड़ा गये है !