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[११०] (1) सुवर्णदान (१०) तदनंतर ककण खोचकर ग्राम की प्रदक्षिणा करना (११) प्रदक्षिणा से निवृत्त होकर सुखपूर्वक दुग्धपान तथा संमोगादिक करना और फिर अपने ग्राम को चशे माना। चतुर्ष रात्रि की इन क्रियाओं से सम्बध रखने वाले कुछ पदवाक्य इसप्रकार हैं:___ "रात्रौ भुवतारादर्शनानन्तरे विविशिए बन्धुजन समापूना । चतुर्थ(यों) दिनेफ्धूवरयोरपि महास्नानानि च स्नपनाचर्चा होमादिकं छत्वा तालीबंधनं कुर्यात् । तद्यथा-परेण दचासौवर्णी तासी ॥१६॥
"ॐ पतस्याः पाणिगृहीत्यास्तानी बध्नामि इयंनियमघटसमक्ष्मी विदयात् । ___ "ऊँमायर्यापत्यारेतयोः परिणीति प्राप्तयोस्तुरीये घनेनवेलायां चैतालपर्यायाश्च सौ सम्बध्येते सम्बन्धमाला अतोलब्धिपत्यानां द्राधीयं श्रायुश्चापि भूयात् ।
"सुहोमाषसोकर पुन्मंगखीय ससूत्र क्रमाद बन्धयेत्कएटवेशे। स्वसम्बन्धमानापरिवेष्टनं च, सुगशायोलेपनं च ॥१३॥
धूमिहापातापात्राभिराभिः, प्रवेशो परस्यैव तवषयध्वाः।। शुमे मण्डप दक्षिणीकत्सन,प्रदायाशुनागस्य सानानि च१६॥ "समित्समारोपमा पूर्वक तथा, हुताशपूजावसरार्चनं मुदा। पहासमीटीच रोषधूयुतो, विनोकनास्थ (च) पुरं प्रवेत्।
प्रमोः॥ १६७ ॥ • ततः शेषहोम कृत्वा पूर्णाहुति कुर्यात् । "ॐ रक्षत्रयार्चनमयोत्सम शेम भूतिः ॥ १६ ॥ इतिमस्ममहानमंत्र। "हिरण्यगर्मस्य:॥ १६९-११ ॥ इति स्वर्णदानमंत्रः॥ "तदनन्तरं कंकसमोचनं कृत्वामहायोमया प्राम प्रदक्षिणीकृत्य पयःपाचन निघुवनादिकं सुखेन कुर्यात् । स्वमा गच्छेद। .
तदनंतरं' नाम के अन्तिम पाक्य के साथ ही चतुर्थी (चतुर्य'रात्रि ) का विवक्षित सामान्य घृत्य समास हो जाता है। इसके बाद भट्टारकनी के हृदय में इस चतुर्षीकृत्य के सम्बन्ध में कुछ विशेष सूचनाएँ कर देने की भी इच्छा पैदा हुई और इसलिये उन्होंने 'स्वग्राम