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[१९ महारकजी का कोई आपत्ति नहीं ) कि समुगल में चौथे दिन तक ही रहना चाहिये ।। १७३ ।। चौथी रात को-चतुर्थीकादिक के समययदि वरके दोष (पतितल-नपुंसकत्वादिक) मालूम हो जाये तो पिता को चाहिये कि घर को दी हुई-विवाही हुई-अपनी पुत्र को फिर से किटी दुसर निर्दोष पर को दे देव-उसका पुनर्विवाह कर देव-ऐसा बुद्धिमानों ने कहा है ॥२७॥ कुछ विद्वानों का ऐसा भी मत है (जिस पर भी महारकजी को कोई आपत्ति नहीं कि पुत्री का पति के साथ संगम-संमोग-हो जाने के पश्चात् यदि यह मालून पड़े कि इस सम्बंध द्वारा प्रबरों की-गोत्र शाखाओं अथवा मुनि शादिकों की एकतादि जैसे दोष संटित हुए हैं तो ( भागे को उन दोषों की जान बूझ कर पुनरावृत्ति न होने देने धादि के लिये ) पिता को चाहिये कि वह अपनी उस दान की हुई (विवाहिता और पुनः तनयानि ) पुत्री का हरण करे और उस किसी दूसरे के साथ विवाह देवे ॥१७॥ 'कलियुग में लियों का पुनर्विवाह न किया जाय' यह गालव ऋषि का मत है (जिससे भारकजी प्रायः सहगत मालूम नहीं होते ) परंतु दूसर कुछ पात्रयों का मत इमसे मित्र है। उनकी दृष्टि में वैसा निषेध सर्व स्थानों के लिय इष्ट नहीं है, वे किमी क्रिमी देश के लिये ही उसे अच्छा समझते हैं बाकी देशों के लिये पुनर्विवाह की उनको अनुमान है। रहना है और प्रायः वहीं का हो जाता है। सभत्र है इसी रिवाज को इस उहंब बागाइए किया गया हो और यह भी संमत्र है कि चार दिन से अधिक का निवास ही पद्य के पूर्व का अमाए हो। परंतु कुछ भी हो इसमें संदेह नहीं कि सोनीजी ने इस पद्य का जो निम्न अनुवाद दिया है वह यथोचित नहीं है-उसे देने हुए उन्हें इस बान का ध्यान ही नहीं रहा कि पद्य के पात्र में एक धान कही गारे तष उत्तरार्ध में दूसरी चान का अन्य किया गया है
"को कोई प्राचार्य एसा कहने हैं कि पद पपू के साथ चौथे दिन भी इउपक में ही निवास कर!"