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इस तरह पर महारकबी ने स्त्रियों को त्याग या तनाक देने की यह व्यवस्था की है। दक्षिण देश की कितनी ही हिन्दू जातियों में तलाक़ की प्रथा प्रचलित है और कुछ पुनर्विवाह वाली मैनजातियों में भी उसका रिवाज है; जैसा कि १ की फरवरी सन् १९२८ के 'जैनजगत्' अंक नं० ११ से प्रकट है। मालूम होता है महारकबी ने उसी को यहाँ अपनाया है और अपनी इस योजनाद्वारा सपूर्ण नैनसमाज में उसे प्रचारित करना चाहा है। मट्टारकजी का यह प्रयत्न कितना निन्दित है और उनकी उक्त व्यवस्था कितनी दोषपूर्ण, एकांगी सधा न्याय - नियमों के विरुद्ध है उसे बतलाने की जरूरत नहीं । सहृदय पाठक सहज ही में उसका अनुभव कर सकते हैं। हाँ, इतना बरूर बतलाना होगा कि जिस श्री को स्याग या तलाक दिया जाता है यह वैवाहिक सम्बन्ध के विच्छेद होने से, अपना पुनर्विवाह करने के लिये स्वतंत्र होती है। और इसलिये यह भी कहना चाहिये कि महारकजी ने अपनी इस व्यवस्था के द्वारा ऐसी ' त्यक्ता' स्त्रियों को अपने पक्षि की जीवितावस्था में पुनर्विवाह करने की भी स्वतंत्रता या परवानगी दी है || अस्तु पुनर्विवाह के सम्बन्ध में महारकनी ने और भी कुछ भालाएँ जारी की हैं जिनका प्रदर्शन अभी आगे 'स्त्री-पुन'विवाह' नाम के एक स्वतंत्र शीर्षक के नीचे किंवा जायगा । स्त्री- पुनर्विवाह |
(२७) 'तलाक' की व्यवस्था देकर उसके फलस्वरूप परित्यक्ता खियको पुनविवाह की स्वतन्त्रता देने वाले मट्टारकजी ने कुछ हासतों में, अपरित्यक्तासियों के लिये भी पुनर्विवाहको व्यवस्थाकी है, जिसका खुलासा इस प्रकार है
० यद्यपि इस विषय में भट्टारकजी के व्यवस्था चाक्य बहुत कुछ स्पष्ट है फिर भी चूंकि इस विचार के अंडियों में, उन्हें अपनी मनोवृति के अनुकूल न पाकर अथवा प्रथ के प्रचार में विशेष बाधक समझकर उन पर पर्दा डालने की अघन्य चरा की- श्रयः यहाँ