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[१८०] में काही गई क्रियाओं का माषानुपाद नहीं किया गया है। इसी प्रकार ४४ वें और वे लोक का अर्थ भी नहीं लिखा गया है" ____ मराठी अनुवादकर्ता पं० पल्लाप्पा भरमाया निट ने भी ऐसा ही प्राशय व्यक्त किया है-आप इन श्लोकों का अर्थ देना मराठी शिष्टाचार की दृष्टि से अयोग्य बतलाते हैं और किसी संस्कृत विद्वान से उनका अर्थ मालूम कर लेने की जिज्ञासुओं को प्रेरणा करते हैं। इस तरह पर दोनों ही अनुवादकों ने अपने अपने पाठकों को उस धार्मिक ( विधि के ज्ञान से कोरा रक्खा है जिसकी महारानी ने शापद बड़ी है। कृपा करके अपने ग्रंथ में योजना की थी और अपने इस व्यवहार से यह स्पष्ट घोषणा की है कि मधारकजी को ये लोक अपने इस पंप में नहीं देने चाहिये थे।
यद्यपिउन अनुवादकों ने ऐसा लिखकर अपना पिंड छुड़ा लिया है परंतु एक समालोचक का पिंड वैसा लिनकर नहीं छूट सकता-उसका कर्तव्य भिन्न है-बच्चा न होते हुए भी कर्तव्यानुरोध से उसे अपने पाठकों को पोड़ा बहुत कुछ परिचय देना ही होगा जिससे उन्हें यह मालूम हो सके कि 'इन श्लोकों का कथन क्या कुछ अलीलता और अशिष्टता को शिप हुए है। साथ ही, इस पर से महारकाची की रुचि तथा परिणति आदि का भी वे कुछ बोध प्राप्त कर सकें । अत' नीचे उसीका यन किया आता है
पहले लोक में महारकजी ने यह नतलाया है कि 'भोग करने धाला मनुष्य भोचन किये हुए हो, वह शय्या पर श्री के सामने है
और परमात्मा का स्मरण करके श्री की दोनों जा पसारे । फिर दूसरे लोक में यह व्यवस्था दी है कि यह मनुष्य उस स्त्री की योनि को सुप
और वह योनि वालों से रहित हो, अच्छी देदीप्यमान हो, गीली न हो 'तथा भने प्रकार से मन को हरने वाली हो, और उसे छूकर पुत्र के देने वाले पवित्र मंत्र का जाप करे। इसके अणे ग्रंप में योनिस्थ