________________
[११)
देवता की अभिषेक-परस्सर पूना पाला यह मंत्र दिया है जो प्रतिक्षादि विरोध' नामक प्रकरण के (अ) भाग में चक्षुत किया जा चुका है,
और शिखा है कि इस मंत्र को पढ़कर गोबर, गोमुत्र, दूध, दही, घी, कुश और मन से योनि का मच्छी तरह प्रक्षालन करना चाहिये और फिर उसके उपर चंदन, केसर तथा कस्तरी आदि का शेप कर देना चाहिये । इसके बाद 'योनि परयन जपेन्मंत्रात् नाम का १३ वा पप दिया है, जिसमें उस चंदनादि से चर्चित योनि को देखते हुए + पंच परमेष्टिबाधक कुछ मंत्रों के अपने का विधान किया है और फिर उन मंत्रों तथा एक आलिंगन मंत्र को देवर सक्त दोनों लोक नं.
४४, ४५ दिये हैं। इन ओको तारा महारानी ने यह माना की है किसी पुरुष दोनों परस्पर मुंह मिला कर एक दूसरे के होठों को अपने
होठों से खींचें, एक दूसरे को देखें और हाथों से कातियाँ पकड़ कर एक दूसरे का मुखचुम्मान करें। फिर 'पलं देहि इत्यादि मंत्र को पढ़ कर योनि में लिंग को दाखिल किया जाय और वह लिंग योनि से कुछ बड़ा तया बनवान होना चाहिये।
* यथा-"इति मंत्रष गोमय-गोमूत्र-चीर-वधि-सर्पित कुशोदकोनि संम्प्रचाप भीगन्धकुंकुमकस्तूरिकायन
लेपनं कुर्यात् । __+'योनि पश्यन् पदों का यह भय मी अनुवादकों में नही दिया।
सके बाद दोनों की संतुष्टि तथा व्यापून पर योनि में वीर्य के सींचने की बात कही गई है, और यह कयन दोपयों में है, जिनमें पहला 'संतुष्टो भार्यया भाता नाम का एक मनुस्मृति कापाय है और दूसरा पथ निम्न प्रकार है