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बाधा नहीं पाती । बहुधा परस्पर के खान पान तथा विरादरी के लेन देन तक ही उसे सीमित रखना चाहिये । धर्म पर उसका आतंक न जमना चाहिये, किन्तु ऐसे अवसरों पर, भरतनी की तरह, अपने योग्य धर्माचरण को बराबर करते रहना चाहिये । और यदि कहीं का वाताधरण, प्रज्ञान अथवा संसर्गदोष से या ऐसे अंगों के उपदेश से दूक्ति हो रहा हो-सूतक पातक की पद्धति बिगड़ी हुई है तो उसे शक्ति पूर्वक सुधारने का पत्ल करना चाहिये ।। ___तेरहवें अध्याय में मृतकसंस्कारादि-विषयक और भी कितना ही कायन ऐसा है बो दूसरों से उधार लेकर रखा गया है और जैनदृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता । वह सब भी मान्य किये जाने के योग्य नहीं है । यहाँ पर विस्तारमय से उसके विचार को छोड़ा जाता है। ___ मैं समझता हूँ प्रथा पर से सूतक की विडम्बना का दिग्दर्शन कराने के लिये उसका इतना ही परिचय तया विवेचन काफी है। सहृदय. पाठक इस पर से बहुत कुछ अनुमत्र कर सकते हैं।
पिप्पलादि-पूजन। (२१) नवा अध्याय में, यज्ञोपवीत संस्कार का वर्णन करते हुए। महारकजी ने पीपच ष के पूजने का भी विधान किया है। आपके इस विधानानुसार 'सस्कार से चौथे दिन पीपल पूजने के लिये जाना चाहिये। पीपल का वह वृक्ष पवित्र स्थान में खया हो, ऊँचा हो, छेददाहादि से रहित हो तथा मनोक हो और उसकी पूना इस तरह पर की बाय कि उसके स्कन्ध देश को दर्भ तथा पुष्पादिक की मालाओं और हनदी में हुए सूत के धार्गो से अलकृत किया जाय-सपटा अथवा सनाया बाय-, मूल को जल से सींचा नाय और वृक्ष के पूर्व की ओर एक चयूनरे पर अमिकुंड बनाकर उसमें नौ नौ समिधामों तथा घृतादिक से होम किया बाप, इसके बाद उस पक्ष से, निसे.सर्व मंगलों का हेतु पतलाया है,