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इससे महाकवी की क पिपलपूया देवडता या चोकमूढ़ता में परिगचित होती है। उन्होंने हिन्दुओं के विश्वासानुसार पीपल को यदि देवता समझ कर उसकी पूजा की यह व्यवस्था की है तो यह देवडता है और यदि लोगों की देखादेखा पुण्यफल समझ कर या उससे किसी दूसरे अनोखे फल की माया रखकर ऐसा किया है तो वह लोकमदता है अथवा इसे दोनों ही समझना चाहिये । परन्तु कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि उनकी यह पूबन-व्यवस्था मिथ्यात्व को बियर है और मच्छी खासी मिध्याय की पोषक है। मारकवी को भी अपनी इस पूना पर प्रकट मिथ्याल के भावंप का आयात पाया है। परन्तु चूकि स पने मय में इसका विधान करना था इसलिये उन्नानि शिष्ठ दिया-एवं कृतेन मिथ्यात्व-ऐसा करने से कोई मिष्याल नहीं होता । क्यों नहीं होता। 'बौकिकाचारवर्तनात्-इस बिरे कि यह ने लोकाचार का बना है। अर्थात लोगों की देखा देखी जो काम किया जाय उसमें मिथ्यात्व का दोष नहीं खगता ! महारानी का यह हेतु भी बड़ा हा विषय तथा उनके अदभुत पापिल कपोतक है। उनके इस हेतु के अनुसार लोगों को देखादेखी पदि कुदेवों का पूजन किया माय, उन्हें पशुओं की बलि चवाई वाय, साँसी-होई तमा पारी को करें पूजी बाय, मदी समुद्रादिक की पन्दमा-मति के साथ उनमें लान से धर्म मामा जाय, प्राइस के समय मान का विशेष माहाल्य सममा नाय और हिंसा के पाचरस तपा मघमासादि के सेवन में कोई दोष न मामा बाप अश्या यो कहिये कि मन को तब समझ कर प्रवर्ता बाप तो इसमें भी कोई मिष्याब नहीं होगा। तब मियाल अचवा मिथ्याचार ग्रेगा पया, यह कुछ समझ में नहीं पता !!! सोमदेवसरि खो, 'पाक्षिक' में महाबों का पर्थन करते हुए, साफ दिखते हैं कि इन पनाविकों