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करना यह सब हिन्दू धर्म का अनुकरण है, जिसे महारकबी ने लोकानुवर्तन के निःसत्र पर्दे के नीचे छिपाना चाहा है। सहम लोकानुवर्तन के आधार पर ऐसे प्रकट मिध्यात्व को मनिध्यात कह देना, निःसन्देह, बड़े ही दु.साइस का कार्य है 11 और वह इन महारक जैसे व्यक्तियों से ही बन सकता है जिन्हें धर्म के मर्म की कुछ मी खायर नहीं अपना धर्म की आड़ में जो कुछ दूसरा ही प्रयोगम सिद्ध करना चाहते हैं।
इसी तरह पर महारकजी ने, एक दूसरे स्थान पर, 'शक', इस के पूजने का भी विधान किया है, जिसके विधिवाक्य का उल्लेख नमी मा 'अर्कविवाह' की भालोचना करते हुए किया जायगा ।
'वैधव्य योग और अर्क विवाह ।
.(२२) ग्यारहवें अध्याय में, पुरुषों के तीसरे विवाह का विधान करते हुए, महारती लिखते हैं कि 'मर्क (आक) वृक्ष के साथ विवाह न करके यदि तीसरा विवाह किया जाता है तो वह तृतीय विवाहिता श्री विषषा हो जाती है। अतः विचक्षण पुरुषों को चाहिये कि वे तीसरे विवाह से पहल अर्क विवाद किया करें। उसके लिये उन्हें वृद्ध के पास जाना चाहिये, वहाँ बाकर खस्ति वाचनादि कुक्ष्म करना चाहिये, अर्क वृक्ष की पूजा करनी चाहिये, उससे प्रार्थना करनी चाहिये, और फिर उसके साथ विवाह करना चाहिये ' । यृथाः
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* 'सूर्य सस्मार्थ्य' वाक्य म 'सूर्य' शभ्य धर्कख का बालक और उसका पर्याय नाम है, उसी वृक्ष से पूजा के अनन्सर प्रार्थना .का लेख है। सोनीजी ने अपने अनुवाद में सूर्य से प्रार्थना करने की जो बात लिखी है वह उनकी कथनशैली से सूर्य क्षेत्रता से प्रार्थना को सूचित करती है और इसलिये ठीक नहीं है।
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