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नान्दीबाई प्रधीत स्थण्डितं च प्रकल्पयेत् ।
कमन्यय खोयाँ च गंधपुष्पातादिमि" (प्रार्थना) नमस्ते मेगळे देवि नमः सवितुंरात्मज । श्राहिमा छपया देवि पली त्वं मे इहागता । अ व ब्राह्मणो सुधः सर्वप्राणिहिताय । वायो आदिमूतस्त्वं देवांना प्रतिवर्धन वतीयोडाईज पोप मृत्यु चाशु विनाशयेत् ।
ततंच कन्यावरण त्रिपुरुष कुखमुखरत ।" हिन्दू ग्रन्थों के ऐसे पाक्यों पर से ही महारकों ने वैधव्य योग और अविवाह को उक्त व्यवस्खा अपने प्रन्थों में की है। परन्तु खेद है कि आपने उसे मी धायक धर्म की व्यवस्था लिखा है और इस तरह पर अपने पाठकों को धोखा दिया है ।
संकीर्ण हृदयींद्वारं। (२३) यह त्रिवर्णाचार, यपि, हृदय के संकीर्ण उद्गारों से बहुत कुछ भरा हुआ है और मेरी इच्छा भी थी कि मैं इस शीर्षक के नांचे उनका कुछ विशेष दिग्दर्शन कराता परन्तु लेख बहुत बढ़ गया है, इससे सिर्फ दो नमूनों पर ही यहाँ सन्तोष किया जाता है। इन्हीं पर से पाठकों की यह मालूम हो सकेगा कि महारानी की हृदयसंकीर्णता किस हद तक बढ़ी हुई थी और पे बैनसंमान को जैनधर्म की उदार नीति के विरुद्ध किस ओर से जाना चाहते थे:(क) अन्य समितीकूपा पापी पुष्करिणी संसा
तेषों जन्ले नै तु प्राहा खानपानाय च कवित् ॥३-५॥ इस पद में कहा गया है कि 'जो कुएँ, बापड़ी, पुष्करिणी और ताचा भन्यजों के-शद्रों अथवा चमारों आदि के खौदै हुए हो उनका जड़ न तो कमी पीना चाहिये औरन खान के लिये ही ग्रहण करना चाहिये।