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[१६] अन्यनों को भी धर्म का अधिकारी बतला कर उन्हें श्रावकों को कोटि में रखता है उसका, अथवा उन तसर्थकों का कदापि ऐसा अनुदार शासन नहीं हो सकता, जिनकी 'समवसरण' नामकी समुदार समा में ऊँच नीच के भेद भाव को भुला कर मनुष्य ही नहीं किन्तु पशु-पक्षी तक भी शामिल होते थे और वहाँ पहुँचते ही आपस में ऐसे हिलमिल आते थे कि आपने अपने जातिविरोध तकयो भुला देते थे-सर्प निर्मप होकर नकुल के पास खेलता था और विझी प्रेम से चूह का भालिंगन करती थी । कितना ऊंचा आदर्श और मितना विश्वप्रेम-मय भाव है! कहाँ यह आदर्श ? और कहाँ भहारकनी का उक्त प्रकार का घृणात्मक विधान ! इससे स्पष्ट है कि भट्टारकजी का यह सब कपन चैनधर्म की शिक्षा न होकर उससे गहर को चीन है । और वह हिन्दू-धर्म से उधार लेकर रखा गया मालूम होता है। हिन्दुषों के यहाँ सक्त वाक्य से मिलता जुलता 'यम' ऋषि का एक वाक्य * निम्न प्रकार से पाया जाता है:
अन्स्यजेः बानिता कुपातड़ागानि तथैव च। । एषु मात्वा च पीत्वा च पंचगन्येन शुद्धयति । इसमें यह बताया गया है कि अन्त्यमों के खेदि हुए कुओं तथा तालाबों में लान करने वाला तथा उनका पानी पीने वाला मनुष्य अपवित्र हो जाता है और उसकी शुद्धि पंचगव्य से होती है जिसमें गोबर और गोमूत्र भी शामिल होते हैं। सम्भवतः इसी वाक्य पर से भहारकजी ने अपने मास्य की रचना की है। परन्तु यह मालूम नहीं होता कि पंचगव्य से शुद्धि की बात को घटाकर उन्होंने अपने पत्र के उत्तरार्ध को एक दूसरा ही रूप क्यों दिया है ! पंचगव्य से शुद्धि की इस हिन्दू व्यवस्था को तो आपने कई जगह पर अपने प्रथ में अपनाया
देखो नारायण बिट्ठल-संग्रहीत 'प्राधिक सावलि