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वजह है जो वे पीपल में पवित्रता, यज्ञयोग्यता और बोधित्वादि गुणों की कल्पना किये हुए हैं। पीपल में पूतत्व गुण अथवा पवित्रता के हेतु का उल्लेख करने वाला उनका एक वाक्य नमूने के तौर पर इस प्रकार है:अश्वरथ यस्मात्वयि वृक्षराज | मारावयस्तिष्ठति सर्वकारणम् । अतः शुचिस्त्वं सततं तरूणाम् विशेषताऽरिएविनाशनोऽसि इस वाक्य में पीपल को सम्बोधन करके कहा गया है कि 'हे वृक्षराज ! चूँकि सब का कारण नारायण (विष्णु भगवान ) तुम्हारे में तिष्ठता है, इसलिये तुम सविशेष रूप से पवित्र हो और अरिष्ट का नाश करने वाले हो ' |
ऐसी हालत में अपने सिद्धान्तों के विरुद्ध, दूसरे लोगों की देखादेखी पीपल पूजने अथवा इस रूप में लोकानुवर्तन करने से सम्यग्दर्शन मैला होता है— सम्पवस्त्र में वाधा आती है—यह बहुत कुछ स्पष्ट है । खेद है भट्टारकनी, जैन दृष्टि से, यह नहीं बतला सके कि पीपल में किस सम्बन्ध से पूज्यपना है अथवा किस आधार पर उसमें योषित्व तथा पूतत्वादि गुणों की कल्पना बन सकती है ! प्रत्यक्ष में वह
(अथर्वण उवाच ) पुरा ब्रह्मादयो देवाः सर्वे विष्णुं समाशिनः । प्रध्वं देवदेवेशं राक्षसैः पीडिताः स्वयम् । कथं पीडोगशमनमस्माकं ब्रूहि मे प्रभो ॥
" (श्रीविष्णुरुवाच श्रमश्वत्थरूपेण संभवामि च भूतले । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कुरुध्वं वयसेवनम् ॥
अनेन सर्वमद्राणि भविष्यन्ति न संशयः ।
- जयसिंहकल्पहम | * भट्टारकजी के कथन को ब्रह्मवाक्य समझने वाले से नाजी भी, अपने अनुवाद में डेढ़ पेज का लम्बा भावार्थ लगाने पर भी, इस विषय को स्पष्ट नहीं कर सके और न महारकजी के हेतु को ही निर्दोष