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[१४२] अनुसार पिता माई के लिये सूतक की वह कोई मर्यादा मी कायम नही रहती जो ऊपर बतलाई गई है । युक्तिवाद भी मरकजी का बड़ा ही विजण जान पड़ता है ! समझ में नहीं आता एक सूतकी मनुष्य दान क्यों नहीं कर सकता ? उसमें क्या दोष है ? और उसके द्वारा दान किये हुए द्रव्य तथा सूखे भन्नादिक से भी उनका लेने वाला कोई कैसे अपवित्र हो जाता है ? यदि अपवित्र हो ही जाता है तो फिर इस कल्पना मात्र से उसका उद्धार अपवा रक्षा कैसे हो सकती है कि दातार दो दिन के लिये सूनकी नहीं रहा तब तो सूतक के बाद ही दानारिक किया जाना चाहिये । और यदि जरूरत के वात ऐसी कल्पनाएँ कर. लेना भी जायज (विधेय) है तो फिर एक श्रावक के लिये, निसे नित्य पूजन-दान तथा खापायादिक का नियम है, यही कल्पना क्यों न करली जाय कि उसे अपनी उन निल्यावश्यक क्रियाओं के करने में कोई सूतक नहीं लगता ? इस कल्पना का उस कल्पना के साथ मेश भी है जो व्रतियों, दीक्षितों तथा ब्रह्मचारियों ऑदि को पिता के मरण के सिवाय और किसी का सूतक न लगने की बाबत की गई है। अतः महारानी का उक्त हेतुवाद कुछ मी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । वास्तव में उनका यह सब कथन प्रायः माणिक मन्तयों को निये हुए है और कहीं कहीं हिन्दू धर्म से मी एक कदम आगे बढ़ा हुमा जान पड़ता है + । जैन धर्म से उसका कोई खास * यथा:
प्रतिना वीक्षितानां च याक्षिकब्रह्मचारिणाम् । ..
नैषाशाचं मवेत्तेषां पितुश्च मरणं विना ॥ १२ ॥ __ +हिन्दू धर्म में नाल कटने के बाद जन्म लें पाँचत्रे छठे दिन भी पिता कोवान देने तथा पूजन करने का अधिकारी बतलाया है और साथ ही यह प्रतिपादन किया है कि ब्राह्मणों को उस दान के लेने में कोई दोष नहीं । यथा