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[१४] इसमें सन्देह नही कि पंथ में उनके इस विधान से सतक को नोति
और भी ज्यादा अस्थिर हो जाती है और उससे स्तर की बिडम्बना बढ़ जाती है अषया यों कहिये कि उसकी गिट्टी खराब हो जाती है
और मूल्य नहीं रहता । साथ ही, यह मालूम होने लगता है कि 'यह अपनी वर्तमान स्थिति में महन काल्पनिक है। इसका मानना न सामना समय की बहरत, जोकस्थिति अपना अपनी परिस्थिति पर अपतन्धित है—ोक का वातावरण बदल जाने अषया अपनी किसी खास नारत के खड़े हो जाने पर उसमें यथेच्छ परिवर्तन ही नहीं किया था सकता पक्कि उसे सात पता मी पतचाया जा सकता है; वास्तविक धर्म अथवा धार्मिक तत्वों के साथ उसका कोई खास सम्बध नहीं है-उसको उस रूप में न मानते हुए भी पूजा, दान, तथा खाध्यापादिक धर्मकृत्यों का अनुशान किया जा सकता है और उससे किसी अनिष्ट फल की सम्भावना नहीं हो सकती।चुनाच भरत चार पता ने. पुनोत्पति के कारण घर में सूतक होते हुए भी, भगवान् ऋषभदेव को फेववाहान उत्पन्न होने का शुभ समाचार पाकर उनके समवसरण में जाकर उनका साक्षात् पूजन किया था, और वह भजन मी अकेले भषषा चुपचाप नहीं किन्तु बड़ी धूमधाम के साथ अपने माइयों, नियों तथा पुरजनों को साथ लेकर किया था। उन्हें ऐसा करने से कोई पाप नहीं लगा और न उसके कारण कोई भनिष्ट ही संघटित हुमा । प्रत्युत इसके, शास में-भगवबिनसेनाप्रणीत आदिपुरम में उनके इस सदिचार सपा पुण्योपार्जन के कार्य की प्रशंसा ही की गई है जो बन्न पुत्रोत्पत्ति के उत्सव को मी गौण करके पहले मगपाल का पूजन किया । मरतबी के मस्तक में उस वक्त इस प्रकार की किसी कल्पना का उदय तक भी नहीं मा कि 'पुत्रजन्म के योग मात्र से हम सब कुटुम्बीनन, सूतक गृह में प्रवेश न करते हुए है,