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[१४० ब्राह्मणों के लिये यदि दस दिन,का सूतक या तो धेश्यों के लिये प्राय: १३ दिन का, क्षत्रियों के लिये १६ दिन का और शूद्रों के लिये २६ दिन का सूतक-विधान होना चाहिये था। परन्तु पैसा नहीं किया गया। इससे सूतक-विषयक मर्यादा की अच्छी खासी विडम्बना पाई जाती है, और वह पूर्वाचायों के कथन के भी विरुद्ध है, क्योंकि प्रायचितसमुच्चय और छेदशाबादि गन्यों में क्षत्रियों के लिये ५ दिन की, बामणों के लिये १० दिन की, वैश्यों के लिये १२ दिन की और शूद्रों के लिये १५ दिन की सूतक-व्यवसा की गई है और उसमें जन्म तथा मरण के सूतक का कोई अलग भेद न होने से पह, आर तौर पर, दोनों के ही लिये समान जान पड़ती है। यथा:--- '
पात्रनामसाविटावा दिन शुक्रवन्ति पंचमिः। दशवादशामिः पक्षायथासंख्यप्रयोगतः ॥ १५ ॥
-प्रायश्चित्तल, चूलिका। पण दस वारस खियमा परागरसहि तत्य दिबसेहि। ' बसियभासा सुदाह कमेण सुमेति ॥७॥
छेवशाला (ख)माठ भध्याय में महारकजी लिखते है कि 'पुत्र पैदा होने पर पिता को चाहिये कि वह पूना की सामग्री तथा मंगल कलश को लेकर गाने बाजे के साथ श्रीनिगमंदिर में जाये और वहा,पञ्चे की नाल कटने तक प्रति दिन पूजा के लिये ब्राह्मणों की योजना करे तया दान से संपूर्ण भट्ट-मिनुकादिकों को राप्त करे । और फिर तेरहवें अध्याय में यह व्यवस्था करते हैं कि ' नाक कटने तक और सबको तो सूतक छगता है परन्तु पिता और भाई को नहीं लगता। इसीसे के दान देते है और उस दान को लेने वाले अपवित्र नहीं होते हैं। यदि उन्हें भी उसी वक से सूतकी मान लिया जाय तो दान ही नहीं बन सकता था: