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[१३] सकते हैं। इसमें और सब बातें तो हैं ही परतुं 'मुक्ति द्वारा अच्छी सस्ती बनादी गई है ! मुक्ति के इच्छुओं को चाहिये कि वे इसे अच्छी तरह से नोट कर लेवें !!
सूतक की विडम्बना । (२०) जन्म-मरण के समय अशुचिता का कुछ सम्बंध होने से लोक में जननाशोच तथा मरणाशौच (सूतक पातक) की कल्पना की गई है, और इन दोनों को शास्त्रीय भाषा में एक नाम से 'सूतक कहते हैं । त्रियों का रजस्वलाशौच भी इसी के अन्तर्गत है। इस सूतक के मूल में लोकन्यवहार की शुद्धि का जो तत्व अपवा नो सदश्य जिस हद तक संनिहित था, भद्वारकानी के इस ग्रंथ में उसकी बहुत कुछ गिट्टी पसीद पाई जाती है। वह कितने ही अंशों में लक्ष्यभ्रष्ट होकर अपनी सीमा से निकल गया है कहीं ऊपर चढा दिया गया तो कहीं नीचे गिरा दिया गया-उसकी कोई एक स्थिर तथा निदोष नीति नहीं, और इससे सूतक को एक अच्छी खासी बिडम्बना का रूप प्राप्त होगया है । इसी विडम्बना का कुछ दिग्दर्शन कराने के लिये पाठकों के सामने उसके दो चार नमूने रक्खे जाते हैं:
(क) वर्णक्रम से सूतक (जननाशौच) को मर्यादा को विधान करते हुए, आठवें अध्याय में, प्रामखों के लिये १०, क्षत्रियों के लिये १२, और वैश्यों को लिये १४ दिनकी मर्यादा वतलाई गई है। परंतु तेरहवें अध्याय में क्षत्रियों तथा शूद्रों को छोड़कर, जिनके लिये क्रमशः १२ तपा १५ दिन की मर्यादा दी है, और के लिये
यह पथ, त्रैकिटों में दिये हुए पाठ में के साथ, हिन्दुओं के ब्रह्मपुराण में पाया जाता है (शक) और सम्भवतः वहीं डे लिया गया बान पड़ता है।