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(१३६] और स्नान, दान, जप, यज्ञ तथा स्वाध्याय करते हुए "दोनों हाथों में था तो दर्भ के नाल रखने चाहिये और या पवित्रकादर्भ के वने छो) पहनने चाहिये । यथा
बौधौ पक्षिणे हस्ते सर्वदा नित्यकर्मणिERI
खाने दाने जपे यह स्वाध्याये नित्यकर्मणि । 'सपविधी सदमौ वा करो कुर्षात नान्यथा ॥ ३५॥
दर्भ विना न कुषर्षात चा त्रमं जिनपूजनम् । शिनयाच जपे होम ब्रह्मपन्थिविधीयते ॥ १७ ॥ इससे जाहिर है कि महारकजी ने जिनपूजनादिक को तिलक के ही नहीं किन्तु दर्भ के भी बधुए माना है।
आपकी यह मान्यता भी, तिनक सम्बंधी उक्त मान्यता की तरह, जैन शासन के विरुद्ध है । जैनों का प्राचार विचार भी श्राम तौर पर इसके अनुकूल नहीं पाया जाता अथवा या कहिये कि वर्म हाथ में लेकर ही पूजनादिक धर्मकृत्य किये जाय अन्यथा न किये जायें " ऐसी जैनानाय नहीं है । शाखों जैनी बिना दर्भ के ही पूजनादिक धर्मकल्स करते पाए हैं और करते हैं । नित्य की देवपूजा' तथा यशोनन्दि आचार्य कृत 'पंचपरमेष्ठि पूजापाठ' आदिक ग्रंथों में भी दर्म की इस भावश्यकता का कोई उख नहीं है। हाँ, हिन्दुओं के यहाँ दर्मादिक के माहास्य का ऐसा वर्णन जरूर है-वे तिलक और दर्म के बिना खान, पूजन सपा सभ्योपासनादि धर्मकृत्यों का करना ही निष्फल सममने है। जैसा कि उनके पापुराण (उत्तर खण्ड ) के निम्न वाक्य से प्रकट है
मान संध्या पंच ज्ञान पैत्रं होगादिकर्म यः। विना तिखकदीभ्यां कुर्यातधिष्का भवेत् ।।