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परन्तु क्यों नहीं करना चाहिये १ करने से क्या खराबी पैदा हो जाती है अथवा कौनसा उपद्रव खड़ा हो जाता है ? ऐसा कुछ भी नहीं लिखा। क्या तिलक छाप लगाए बिना इनको करने से ये कार्य चधरे रह जाते हैं ? इनका उद्देश्य सिद्ध नहीं होता ? अथवा इनका करना ही निष्फल होता है। कुछ समझ में नहीं आता !! हाँ, इतना स्पष्ठ है कि भट्टारकजी ने जप-तप, दान, स्वाध्याय, पूजा-भक्ति और शास्त्रोपदेश तक को तिलक के साथ बँधे हुए समझा है, तिलक के अनुचर माना है और उनकी दृष्टि में इनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं इनका स्वतंत्रता पूर्वक अनुष्ठान नहीं हो सकता यथा वैसा करना हितकर नहीं हो सकना । और यह सब जैन शासन के विरुद्ध है। एक वन में तथा एक जनेऊ पहन कर इन कार्यों के किये जाने का विरोध जैसे युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता उसी तरह पर तिलक के बिना भी इन कार्यों का किया जाना, जैन सिद्धांतों की दृष्टि से कोई खास आपत्ति के योग्य नहीं जँचता । इस विषय में ऊपर ( नं० १६ तथा १८ में ) जो तर्कणा की गई है उसे यथायोग्य यहाँ भी समझ लेना चाहिये ।
इसी तरह पर तीसरे अध्याय में दर्भ * का माहात्म्य गाया गया है और उसके बिना भी पूजन, होम' तथा जप आदिक के करने का निषेध किया है और लिखा है कि पूजन, जप तथा होम के अवसर पर दर्म में गाँठ लगानी होती है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि नित्य कर्म करते हुए हमेशा दो दमों को दक्षिण हाथ में धारण करना चाहिये
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* कुश, काँस, दूब और मूँज परीरह घास, जिसमें गेहूँ, जौ तथा are ft after भी शामिल हैं और जिसके इन भा का प्रति• ures लोक " अजैन ग्रन्थों से संग्रह " नामक प्रकरण में उधृत किया जा चुका है।
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