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योनिः स्वाद्यावद् गंगा न पश्यति' दिया था जिसको भट्टारकजी ने 'निर्दयः पापभागी स्यादनंतकाधिकं त्यजेत्' के रूप में बदल दिया है ! और इस तरह पर ऐसी दाँतन करने वाले को पापी श्रादि सिद्ध करने के लिये उन दाँतनों में ही घनंत जीवों की कल्पना कर डाली है !! जो मान्य किये जाने के योग्य नहीं । और न उसके आधार पर ऐसी दाँतन करने वाले को पापी तथा निर्दयी है। ठहराया ना सकता है । खेद है कि भट्टारकजी ने स्वयं ही दो पद्म पहले ६३ वें पक्ष में-- 'चटस्तथा' पद के द्वारा, वाग्भट आदि की तरह, बंड़ की दाँतन का विधान किया और ६४ वे पद्म में 'एताः प्रशस्ताः efeat creatकर्मणि' वाक्य के द्वारा उसे दन्तधावन कर्म में श्रेष्ठ भी बतलाया परंतु बाद को गोमिल के वचन सामने आते ही आप उनके कथन की दृष्टि और अपनी स्थिति का विचार मूल कर, एक दम बदल गये और आपको इस बात का मान भी न रहा कि जिस बड़की दाँतन का हम अभी विधान कर आए हैं उसीका अब निषेध करने जारहे हैं !! इससे कथन की विरुद्धता ही नहीं किंतु भंडारकनी की खासी समीक्ष्पकारिता मी पाई जाती है ।
तेल मलने की विलक्षण फलघोषणा । .
- (३) दूसरे अध्याय में, तेलमर्दन का विधान करते हुए, भट्टारकमी ने उसके फल का जो बेथान किया है वह बना दी विलक्षण है । आप लिखते हैं
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खोमे कीर्तिः प्रसरति घरा रोविशेये हिरव
देवाचायें तरखितनये वर्षते नित्यमायुः तैलाभ्यङ्गात्ततुजमरणं दृश्यते सूर्यबारे
मौमे मृत्युर्मति च नितरां मार्गचे वित्तनाशः ॥ ८४ ॥ . अर्थात् सोमवार के दिन तेस मलने से उत्तम कीर्ति फैलती है,
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