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११६] "अकच्चा पुछाच्छो वाऽद्विकच्छ कटिषष्टितः। कौपीनकधरबंध नमः पंचविधः स्मृतः ।।
स्मृतिरक्षाकर। जान पड़ता है हिन्दू ग्रंथों के कुछ ऐसे खोकों पर से ही भारकामी ने अपने लोकों की रचना की है और उनमें 'कषायवाससा नम:' जैसी कुछ बातें अपने मतलब के लिये और शामिल करती हैं।
अधौत का अद्भुत लक्षण। (११) तीसरे अध्याय में ही भट्टारकनी, 'अधौत' का लक्षण बताते हुए, शिखते हैं
खोतं लिया घौत शुदधीतं च चेटकैः। पालकैयौतमक्षारपौतमिति माध्यने ॥३२॥ अर्थात् जो (वन) कम धुला हुभा हो, किसी बी काधोया हुआ हो, शवों का धोया हुआ, हो, नौकरों का धोया हुमा हो,या अज्ञानी बालकों का धोया हुमा हो उसे 'भधौत'-बिना घुला हुमा-कहते हैं।
इस लक्षण में कम धुले हुए और अज्ञानी बालकों के धोये हुए वों को अधौत कहना तो कुछ समझ में माता है, परन्तु नियों, शनों
और नौकरों के धोये हुए बखों को भी जो अधौत बताया गया है वह किस आधार पर भवलाम्बित है, यह कुछ समझ में नहीं भाता ! क्या ये लोग वन धोना नहीं जानते अथवा नहीं जान सकते जरूर जामते हैं और थोड़े से ही अभ्यास से बहुत अच्छा कपमा धो सकते हैं। शों में धोनी (रजक) तो अपनी स्त्रीसहित बल धागे का भी काम करता है और उसके धोये हुए पत्रों को सगी जोग पानते हैं। इसके सिवाय, ला लिया तथा नौकर बस धोते हैं और उमकं धोए पुए पर लोक में अधीत नहीं समझे नाते । फिर नहीं मालूम गारपानी निस न्याय भयवा सिद्धान्त से ऐसे लोगों के द्वारा भुने हुए शो से वस को भी मधीत कहने का साहस करते हैं पाप शिका