________________
[१६] में ही मोमन के अतिरिक्त देवपूजन, खाध्याय, दान और जप ध्यानादिक सम्पूर्ण धार्मिक स्यों का अनुष्ठान करता है। यदि एक वस्त्र में इन सब कृलों का किया बाना निषिद्ध हो तो श्रावक का उत्कृष्ट सिंग ही नहीं बन सकता, अथवा यों कहना शेगा कि उसका जीवन धार्मिक नहीं हो सकता । इससे जैनशासन के साथ इस सब कयन का कोई संबंध ठीक नहीं बैठता--वह जैनियों को सैद्धान्तिक दृष्टि से निरा सारहीन प्रतीत होता है । वास्तव में यह कथन भी हिन्दू-धर्म से लिया गया है। इसके प्रतिपादक वे दोनों पाक्य-गी जो ३६ वे पथ का उत्तरार्ध और ३७ वे पथ का पूर्वार्ध बनाते हैं हिन्दू-धर्म की चीब है-हिन्दुओं के 'चंद्रिका ग्रंथ का एक रखोक हैं--और स्मृतिरनाकर में भी, मैकिटों में दिये हुए साधारण से पाठमंद के साथ, उद्धृत पाये जाते हैं।
सुपारी खाने की सजा। (१७) मोजनाध्याय * में, साम्बूसविधि का वर्णन करते हुए, मधारकजी लिखते हैं
अनिधाय मुझे पणे पूर्ण जाति यो ना अमजन्मदरिधः स्यादन्ते नैव स्मरेखिनम् ॥ २३३ ।
छठे भध्याय का नाम 'भोजन' अध्याय है परन्तु इसके शुरू के १४६ कोकों में जिनमंदिर के निर्माण तथा पूजनादि-सम्बन्धी कितना ही कथन एसा दिया हुआ है जो अध्याय के नाम साथसंगत माग नहीं होता और भी कुछ अध्यायों में ऐसी गहगही पाई जाती हैऔर इससे पह पर है कि मध्यायों के विषय-दिमाग में भी विचार ठीक काम नहीं लिया गया।