________________
[ १२८ ]
एक वन में भोजन - भजनादिक पर आपत्ति ।
(१६) एक स्थान पर महारकदी लिखते हैं कि 'एक वल पहन कर भोजन, देवपूजन, पितृकर्म, दाम, होम, और जप आदिक (स्नान, खाध्यायादिक) कार्य नहीं करने चाहिये । खंड वन पहन कर तथा 1 या पहन कर मी ये सब कान न करने चाहियें । यया
एकवस्त्रो न भुंजीत न कुर्याद्देवपूड [ तार्थ ] नम् ॥ ३२३॥ म कुर्यात्पिढकर्मा [ कार्या ] णि दानं होमं जपादिकम् [ तथा ]
सण्डवसातच बनाता ॥ ३७ ॥
धरन्तु क्यों नहीं करने चाहियें करने से क्या हानि होती है अपना कौनसा अनिष्ट संघटित होता है ? ऐसा कुछ भी नहीं लिखा ! क्या एक वन में भोजन करने से वह भोजन पचता नहीं ? पूजन या भजन करने से वोक्रा भगवान भी रुष्ट हो जाते हैं यत्रा मक्तिरस उत्पन्न नहीं हो सकता ? आहारादिक का दान करने से पात्र को तृप्ति नहीं होती या उसकी क्षुषा आदि को शांति नहीं मिल सकती ! खाध्याय करने से ज्ञान की संप्राप्ति नहीं होती ? और परमात्मा का ध्यान करने से कुशल परिणामों का उद्भत्र तथा श्रालानुभवन का लाभ नहीं हो सकता है यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर एक वस में इन भोजनभजनादिक पर भापति कैसी ? यह कुछ समझ में नहीं धाता !! नैनमत में उत्कृष्ट श्रावक का रूप एक वस्त्रकारी माना गया है-इसीसे 'चेलखण्डधरः' 'adhur :', 'एकशाटकघरः', 'कौपीनमात्रतंत्रः' यादि नामों या पदों से उसका उल्लेख किया जाता है और वह अपने उस एक वस्त्र
#झादिक शब्द का यह आशय अंथ के अगले 'लानं दानं जपं होमं नाम के पद्म पर से ग्रहण किया गया है जो 'वतंत्र रूप से दिया है और संभवतः किसी हिन्दू-ग्रंथ का ही पद्म मालूम होता है।